MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम

Ashok Nayak
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नमस्कार दोस्तों ! इस पोस्ट में हमने MP Board Class 10th Hindi Book Navneet Solutions पद्य खंड Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम के सभी प्रश्न का उत्तर सहित हल प्रस्तुत किया है। हमे आशा है कि यह आपके लिए उपयोगी साबित होगा। आइये शुरू करते हैं।

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम

बोध प्रश्न

अति लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1. सभी दिशाएँ क्या पूछ रही हैं?

उत्तर: सभी दिशाएँ यह पूछ रही हैं कि वीरों का वसन्त कैसा हो।
 

प्रश्न 2. किसके अंग-अंग पुलकित हो रहे है?

उत्तर: पृथ्वी रूपी वधू के अंग-अंग पुलकित हो रहे हैं।
 

प्रश्न 3. वसन्त के आने पर कौन तान भरने लगता है?

उत्तर: वसन्त के आने पर कोयल अपनी तान भरने लगती हैं।
 

प्रश्न 4. कवि चट्टानों की छाती से क्या निकालने के लिए कह रहा है?

उत्तर: कवि चट्टानों की छाती से दूध निकालने के लिए कह रहा है।

प्रश्न 5. कवि के अनुसार मनुष्य का भीतरी गुण क्या है?

उत्तर:कवि के अनुसार मनुष्य का भीतरी गुण स्वातन्त्र्य जाति की लगन है।
 

प्रश्न 6. भ्रामरी किसका अभिनन्दन करती है?

उत्तर: जो व्यक्ति युद्ध क्षेत्र में जाकर तलवार की चोट खाकर माथे पर रक्त का चन्दन लगाता है, भ्रामरी उसी का अभिनन्दन करती है।


शौर्य और देश प्रेम लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग-जाग से कवि का क्या आशय है?

उत्तर: ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग-जाग से कवि का आशय यह है कि जिस प्रकार द्वापर में कुरुक्षेत्र में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया गया था, आज पुनः उसी की आवश्यकता है।
 

प्रश्न 2. सिंहगढ़ का दुर्ग एवं हल्दी घाटी में किसकी याद छिपी है?

उत्तर: सिंहगढ़ के दुर्ग में अद्वितीय वीर शिवाजी की तथा हल्दी घाटी में राणा प्रताप की याद छिपी है।

प्रश्न 3. विजयी के सदृश बनने के लिए कवि क्या-क्या करने को कह रहा है?

उत्तर: विजयी के सदृश बनने के लिए कवि मनुष्यों से वैराग्य छोड़ने, युद्ध में लड़ने, चट्टानों की छाती से दूध निकालने, चन्द्रमा को निचोड़ कर अमृत निकालने और ऊँची चट्टटानों पर सोमरस पीने के लिए कहता है।


प्रश्न 4. स्वाधीन जगत में कौन जीवित रह सकता है?

उत्तर: जो व्यक्ति अपनी आन-बान पर डटा रहता है तथा जो किसी के सामने झुकता नहीं है साथ ही जो अपने शरीर पर वज्रों का आघात सहता है, वही जाति स्वाधीन जगत में जीवित रह सकता है।
 

प्रश्न 5. जीवन की परिभाषा क्या है? कवि के विचारों को लिखिए।

उत्तर: कवि के शब्दों में जीवन गति है, जो विघ्न-बाधाओं को पार करता हुआ निरन्तर चलता रहता है। जीवन एक तरंग है, एक गर्जन है और एक चंचलता है।

प्रश्न 6. कवि ने वीरता के कौन से दो लक्षण बताये हैं?

उत्तर: कवि ने वीरता के दो लक्षण इस प्रकार बताये हैं-स्वर में पावक जैसी उष्णता या तीव्रता होनी चाहिए, दूसरे वीर के सिर पर तलवार की चोट का चन्दन लगा होना चाहिए।


दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. कवयित्री वीरों के लिए किस तरह वसन्त का का आयोजन करना चाहती है?

उत्तर: कवयित्री वीरों के लिए इस तरह के वसन्त का आयोजन करना चाहती हैं, जिसमें इधर तो कोयल अपनी तान सुना रही हो और उधर मारू बाजा बज रहा हो। इस प्रकार रंग (आनन्द) और रण (युद्ध) का वातावरण बन रहा हो।

प्रश्न 2. वसन्त उत्सव के लिए प्रेरक पंक्तियों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर: वसन्त उत्सव के लिए प्रेरक पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं-

फूली सरसों ने दिया रंग,

मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,

वधू-वसुधा, पुलकितअंग-अंग

हैं वीर-देश में, किन्तु कंत।

वीरों का कैसा हो वसन्त?

प्रश्न 3. कवि के अनुसार जब अहं पर चोट पड़ती है तब उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है?

उत्तर: कवि के अनुसार जब अहं पर चोट पड़ती है, तब उसकी प्रतिक्रियास्वरूप अहं से बड़ी कोई चीज जन्म ले लेती है।
 

प्रश्न 4. स्वतन्त्रता प्रेमी जाति के गुणों का वर्णन कीजिए।

उत्तर: स्वतन्त्रता प्रेमी जाति में लगन होती है, वह जाति धुन की पक्की होती है। चाहे कितनी भी विपत्तियाँ क्यों न आ जायें वे उनसे हार नहीं मानती है।
 

प्रश्न 5. निम्नलिखित पद्यांशों की व्याख्या कीजिए-

(अ) गलबाहें हो या हो कृपाण ……………. कैसा हो वसन्त?

उत्तर: कवयित्री कहती हैं कि चाहे तो प्रेमालाप के समय कोई परस्पर गले में बाँहें डाले हो अथवा रणक्षेत्र आने पर हाथ में कृपाण (तलवार) उठी हो। चाहे आनन्द का रस विलास। हो अथवा दलित नागरिकों की रक्षा की बात हो। आज मेरे सामने यही सबसे बड़ी समस्या है कि वीरों का वसन्त कैसा हो।

(ब) स्वर में पावक …………… मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं।

उत्तर: कवि कहता है कि यदि तुम्हारी वाणी में आग जैसी गर्मी नहीं है तो फिर तुम्हारा क्रन्दन करना वृथा है। यदि तुममें वीरता नहीं है तो फिर सभी प्रकार की विनम्रता केवल रोना है। जिस व्यक्ति के सिर पर तलवार की चोट से रक्त और चन्दन लगा होता है, दुर्गा या काली माँ उसी व्यक्ति का अभिनन्दन किया करती हैं। कवि कहता है कि राक्षसी रक्त से सभी पाप धुल जाया करते हैं। साथ ही ऐसी वीरता से ऊँची मनुष्यता का मार्ग खुल जाया करता है।


शौर्य और देश प्रेम काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1. संकलित कविता में से वीर रस की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए वीर रस को परिभाषित कीजिए।

उत्तर: वीर रस-जहाँ उत्साह नामक स्थायी भाव जाग्रत होकर विभाग, अनुभाव एवं संचारी के संयोग से पुष्ट होकर रस दशा में पहुँचता है, वहाँ वीर रस होता है।

उदाहरण :

वैराग्य छोड़कर बाँहों की विभा सँभालो।

चट्टानों की छाती से दूध निकालो।

है रुकी जहाँ भी धार शिलाएँ तोड़ो।

पीयूष चन्द्रमाओं को पकड़ निचोड़ो॥


प्रश्न 2. रौद्र रस को समझाते हुए वीर एवं रौद्र रस में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: शत्रु या दुष्ट जन द्वारा किए गए अत्याचारों या गुरुजन की निन्दा आदि से उत्पन्न क्रोध स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी के संयोग से पुष्ट होकर रौद्र रस के रूप में परिणत होता है।

वीर एवं रौद्र रस में अन्तर :

वीर एवं रौद्र दो भिन्न-भिन्न रूप हैं। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह होता है जबकि रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। दोनों के आलम्बन, अनुभाव, संचारी आदि में अन्तर होता है।

प्रश्न 3. अन्योक्ति अलंकार की उदाहरण सहित परिभाषा कीजिए।

उत्तर: प्रस्तुत कथन के द्वारा अप्रस्तुत का बोध हो वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण :

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल।

अली कली ही सौ बिंध्यौ; आगे कौन हवाल॥


MCQ

प्रश्न 1. हिमालय से क्या आ रही है

(क) पुकार    (ख) हुंकार    (ग) दुत्कार    (घ) चीत्कार।

उत्तर: (क) पुकार

प्रश्न 2. वसन्त के आने पर कौन तान भरने लगता है?

(क) कौआ    (ख) मोर    (ग) कोयल    (घ) मेंढक

उत्तर:  (ग) कोयल


प्रश्न
3.    “जीवन गति है, वह नित अरुद्ध चलता है पंक्ति पाठ्य-पुस्तक की किस कविता से ली

(क) सोये हुए बच्चे से    (ख) श्रद्धा से    (ग) उद्बोधन से    (घ) शौर्य और देश-प्रेम से।

उत्तर: (ग) उद्बोधन से
 

प्रश्न 4. रामधारी सिंह दिनकर ने जीवन की गति को कैसा बतलाया है?

(क) रुक-रुक कर चलने वाला    (ख) निर्मल    (ग) नित अरुद्ध    (घ) चंचल।

उत्तर: (ग) नित अरुद्ध

रिक्त स्थानों की पर्ति

  1. वीरों का कैसा हो वसन्त कविता की रचयिता ………….. चौहान हैं।
  2. रामधारी सिंह दिनकर की कविता में ………….. है।
  3. महाराणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए ……………. की अधीनता स्वीकार नहीं की।
  4. कवि के अनुसार चलते रहने का नाम ………… है।

उत्तर:

  1. सुभद्राकुमारी
  2. ओज गुण
  3. मुगलों
  4. जीवन

सत्य/असत्य

  1. वीरों का कैसा हो वसन्त में केवल वसन्त की प्राकृतिक शोभा का वर्णन है।
  2. वीरों का कैसा हो वसन्त में कवि ने सिंहगढ़ का किला,राणा प्रताप के शौर्य एवं वीरता की याद दिलवाई है।
  3. वसन्त ऋतु में कोयल का मधुर स्वर सुनायी पड़ता है।
  4. स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है । पंक्ति वीरों का कैसा हो वसन्त कविता की है।

उत्तर:

  1. असत्य
  2. सत्य
  3. सत्य
  4. असत्य।

सही जोड़ी मिलाइए

(i)

(ii)

1.वीरों का कैसा हो वसन्त

2. भर रही कोकिला इधर तान

3. भूषण अथवा कवि चन्द नहीं, बिजली भर दे

4. उद्बोधन

(क) रामधारी सिंह 'दिनकर

(ख) वह छन्द नहीं

(ग) आ रही हिमालय से पुकार

(घ) सुभद्राकुमारी चौहान

 उत्तर:

1. → (घ)

2. → (ग)

3. → (ख)

4. → (क)

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

  1. वीरों का कैसा हो वसन्त कविता में कवयित्री ने किस पर्व का आयोजन किया है?
  2. वीरों की पुकार किस स्थान से आ रही है?
  3. वसन्त ऋतु में सरसों में किसके द्वारा पीलिमा छा जाती है?
  4. नर पर जब विपत्ति आती है तब वह विपत्ति मानव को किस प्रकार की शक्ति देती है?

उत्तर:

  1. वीरों के वसन्त का
  2. हिमालय पर्वत से
  3. फूलों द्वारा
  4. संघर्षों से जूझने की।

वीरों का कैसा हो वसन्त? भाव सारांश

प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने राष्ट्र को परतन्त्रता से मुक्ति की अपेक्षा राग-रंग को श्रेष्ठ ठहराया है। जैसे प्रकृति अपने फूलों के माध्यम से केसरिया वस्त्र पहनती है,उसी भाँति वीरों को भी वसंत का आह्वान करना चाहिए। संपूर्ण दिशाएँ भी यह पूछ रही हैं कि वीरों का वसंत कैसा होना चाहिए? हिमालय की पुकार में भी यही स्वर गुंजायमान है। वीरों को कोकिला की तान सुनने के साथ ही रणभूमि में जाने के लिए उद्यत रहना चाहिए। कवयित्री पुनः जागृति का सन्देश देते हुए कहती है कि हे वीरो! तुम्हें भली प्रकार विदित है कि लंका में क्यों आग लगायी गयी थी, कुरुक्षेत्र में महासंग्राम क्यों हुआ था। अन्त में कवयित्री का कथन है कि मेरी कविता भूषण अथवा कवि चन्दवरदायी की कविता के समान क्रान्ति की ज्वाला धधकाने में सक्षम नहीं है क्योंकि परतन्त्रता के वातावरण में कलम पर भी बन्धन है। वह अपनी भावनाओं को ब्रिटिश शासन के उत्पीड़न के फलस्वरूप व्यक्त करने में प्तक्षम नहीं है।

वीरों का कैसा हो वसन्त? संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) वीरों का कैसा हो वसन्त?

आ रही हिमालय से पुकार,

है उदधि गरजतां बार-बार

प्राची,पश्चिम,भू,नभ,अपार,

सम पूछ रहे हैं, दिग् दिगन्त

वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :

उदधि = समुद्र। प्राची = पूर्व दिशा। दिग = दिशाएँ।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत छन्द वीरों का कैसा हो वसन्त?’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसकी रचयिता सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान हैं।

प्रसंग :

इस छन्द में कवयित्री ने वीरों का वसन्त कैसा होना चाहिए के बारे में बतलाया है।

व्याख्या :

कवयित्री जी कहती हैं कि वीरों का वसन्त कैसा हो? आज हिमालय की चोटियों से यही पुकार आ रही है, समुद्र बार-बार गर्जन कर पूछ रहा है। पूर्व दिशा, पश्चिम दिशा, पृथ्वी, आकाश एवं दिग-दिगन्त सभी पूछ रहे हैं कि वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

वीरों का सम्मान हिमालय, समुद्र एवं दिशाएँ सभी करते हैं।

अनुप्रास अलंकार।

(2) फूली सरसों ने दिया रंग,

मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,

वधू-वसुधा पुलकित अंग-अंग

हैं वीर देश में, किन्तु कंत

वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :

अनंग = कामदेव। वधू-वसुधा = पृथ्वी रूपी दुल्हन। कंत = पति।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवयित्री जी कहती हैं कि वसन्त ऋतु में सरसों ने फूलकर अपना वसन्ती रंग सम्पूर्ण पृथ्वी पर बिखेर दिया है। कामदेव मधु लेकर स्वयं उपस्थित हो गया है। इस ऋतु में पृथ्वी रूपी वधू का अंग प्रत्यंग खुशी से पुलकित हो रहा है। आज हमारे देश में वीर तो हैं परन्तु हमारा वसन्त (पति) हमारे पास नहीं है। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

बसन्त ऋतु की मादकता प्रकृति में छा गई है।

वधू वसुधा में रूपक, अंग-अंग में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।

(3) भर रही कोकिला इधर तान,

मारू बाजे पर उधर गान,

है रंग और रण का विधान,

मिलने आए हैं आदि-अंत

वीरों का कैसा हो वसंत?

शब्दार्थ :

कोकिला = कोयल। मारू = युद्ध का बाजा। रण = युद्ध।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवयित्री कहती हैं कि एक ओर तो कोयल अपनी मीठी धुन गा-गाकर सुना रही है और दूसरी ओर युद्ध का बाजा मारू बज रहा है। ऐसा लग रहा है कि आज आनन्द और युद्ध दोनों का विधान है। ऐसा लग रहा है कि आज; आदि और अन्त दोनों मिलने के लिए आये हों। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

चाहे वसन्त की मादकता हो या फिर कोई दूसरा आकर्षण, वीरों को अपने रण क्षेत्र से हटा नहीं सकता है।

अनुप्रास अलंकार।

(4) गलबाँहे हों या कृपाण,

चल चितवन हो या धनुष बाण,

हो रस-विलास, या दलित त्राण,

अब यही समस्या है, दुरन्त,

वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :

गलबाँहें = प्रेम में प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे के गले में अपनी बाँहे डाल देते हैं। कृपाण = तलवार। चल-चितवन = प्रेम में चंचल दृष्टि। रस-विलास = आनन्द का वातावरण। दलित = दबे हुए। त्राण = रक्षा। दुरन्त = मुश्किल से नष्ट होने वाली।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

जब समाज में एक ओर बलिदान की बात हो तो प्रेम की बात अच्छी नहीं लगती।

व्याख्या :

कवयित्री कहती हैं कि चाहे तो प्रेमालाप के समय कोई परस्पर गले में बाँहें डाले हो अथवा रणक्षेत्र आने पर हाथ में कृपाण (तलवार) उठी हो। चाहे आनन्द का रस विलास। हो अथवा दलित नागरिकों की रक्षा की बात हो। आज मेरे सामने यही सबसे बड़ी समस्या है कि वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

अनुप्रास की छटा।

(5) कह दे अतीत! अब मौन त्याग,

लंके! तुझमें क्यों लगी आग?

ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग, जाग,

बतला अपने अनुभव अनंत,

वीरों का कैसा हो वसंत?

शब्दार्थ :

लंके = रावण की लंका। मौन = खामोशी, चुप्पी।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

इसमें कवयित्री अतीत की वीर गाथाओं का सन्दर्भ लेते हुए कह रही हैं।

व्याख्या :

कवयित्री कहती है कि हे अतीत! तुम अब अपना मौन त्याग दो और विगंत की घटनाओं को बतला दो। हे लंके! तू बता तुझमें क्यों आग लगी? हे कुरुक्षेत्र! तुम अब जाग जाओ और अपने अनन्त अनुभवों को हमें बता दो। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

कवयित्री ने लंका और कुरुक्षेत्र का मानवीकरण किया है।

अतीत काल की वीर गाथाओं का स्मरण किया है।

(6) हल्दी घाटी के शिला खण्ड,

ऐ दुर्ग! सिंहगढ़ के प्रचंड,

राणा-ताना का कर घमण्ड,

दो जगा आज स्मृतियों ज्वलन्त,

वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :

शिला खण्ड = चट्टानें। ज्वलन्त = प्रखर, तेज। सन्दर्भ एवं प्रसंग-पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवयित्री कहती हैं कि हे हल्दी घाटी के शिलाखण्डों तथा हे सिंहगढ़ के दुर्ग! तुम राणा प्रताप तथा शिवाजी की वीरता का बखान करके आज तेजी के साथ उन अतीत की स्मृतियों को जगा दो। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

हल्दी घाटी में राणा प्रताप के शौर्य की गाथा की ओर कवयित्री ने संकेत किया है तो सिंहगढ़ के दुर्ग के माध्यम से वीर शिवाजी की वीरता का बखान किया है।

मानवीकरण अलंकार।

वीर रस।

(7) भूषण अथवा कवि चन्द नहीं,

बिजली भर दे वह छन्द नहीं

है कलम बँधी, स्वच्छन्द नहीं

फिर हमें बतावै कौन? हंत!

वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :

बिजली भर दे = वीरता का संचार कर दे। हंत = दुर्भाग्य है।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :

पूर्ववत्।

व्याख्या :

कवयित्री अतीत का स्मरण करती हुई कहती है कि अतीत काल में हमारे देश में भूषण और चन्दवरदाई जैसे वीर रस का संचार करने वाले दो महाकवि थे। भूषण ने शिवाजी के शौर्य का वर्णन कर उस समय समाज में वीरता का संचार किया था और उससे पूर्व चन्दवरदाई ने पृथ्वीराज के शौर्य का वर्णन कर तत्कालीन समाज में वीरता का संचार किया लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे महान कवि आज नहीं हैं। इतना ही नहीं वर्तमान शासकों ने इस प्रकार के कवियों की रचना धर्मता को कैद कर लिया है उनको बोलने की आज्ञा नहीं दी है। फिर। हमें कौन मार्गदर्शन देगा, यह हमारा दुर्भाग्य है। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

कवयित्री अंग्रेजी शासन के उन आदेशों की ओर संकेत कर रही हैं, जब अंग्रेज शासकों ने यहाँ के कवियों द्वारा वीरता के गान पर पाबन्दी लगा दी थी।

वीर रस।

उद्बोधन भाव सारांश

प्रस्तुत कविता में कवि ने मनुष्य का उद्बोधन करते हुए उसे मृत्यु से भयभीत न होने का संदेश दिया है। कवि का आग्रह है कि विषम परिस्थितियों में भी व्यक्ति को स्वाभिमान नहीं छोड़ना चाहिए। इसके लिए चाहे उसे अपना सिर कटाकर भले ही मूल्य चुकाना पड़े। व्यक्ति को अन्याय का डटकर सामना करना चाहिए।

विपत्ति के भयानक बादल छा जाने पर मानव के हृदय में संघर्ष करने की भावना जाग्रत होती है। आघात सहने के साथ ही एक छोटी सी चिंगारी अंगारे का रूप धारण कर लेती है। यदि वाणी में ज्वाला के सदृश तेज नहीं तो वह वन्दना निरर्थक है।

जीवन का नाम ही गति है। पावक के सदृश जलना ही जीवन गति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। धरती पर आगे बढ़ने में राह में अनेक बाधायें आती हैं तब भी निरन्तर गतिमान रहना चाहिए।


उद्बोधन संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) वैराग्य छोड़कर बाँहों की विभा सँभालो,

चट्टानों की छाती से दूध निकालो।

है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,

पीयूष चन्द्रमाओं को पकड़ निचोड़ो।

चढ़ तुंग शैल-शिखरों पर सोम पियो रे!

योगियों नहीं, विजयी की सदृश जियो रे!

शब्दार्थ :

बाँहों की विभा सँभालो = अपने पौरुष। (शक्ति) पर विश्वास करो। पीयूष = अमृत। तुंग = ऊँचे। शैल = चट्टान। सदश = समान।।

सन्दर्भ :

प्रस्तुत छन्द उद्बोधन शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचनाकार श्री रामधारी सिंह दिनकर हैं।

प्रसंग :

कवि ने मनुष्यों को वैराग्य छोड़ने और शूरता का पथ अपनाने का सन्देश दिया है।

व्याख्या :

कविवर दिनकर जी कहते हैं कि हे भारतवासियो! तुम वैराग्य की बातों को त्याग दो और अपनी भुजाओं के बल। पर विश्वास करो। तुम ऐसी चेष्टा करो कि आवश्यकता पड़ने पर चट्टानों की छाती से दूध निकाल लो। यदि तुम्हारे मार्ग में, लक्ष्य प्राप्त करने में कोई बाधाएँ आती हैं, तुम्हारी गति की धार को यदि बीच में शिलाएँ रोक देती हैं तो तुम अपने बल पर उन शिलाओं को तोड़कर अपना मार्ग स्वयं बना डालो। अमृतधारी चन्द्रमाओं को पकड़कर उन्हें निचोड़ डालो। हे वीर! तुम ऊँचे पर्वत शिखरों पर चढ़कर सोम का पान करो। अतः योगियों जैसा नहीं अपितु वीर विजेता के समान जीवन जीओ।

विशेष :

समय के अनुरूप कवि ने भारतीयों को शक्ति संचित करने का उपदेश दिया है।

कवि वैरागियों से घृणा करता है।

लाक्षणिक शैली।

(2) छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,

मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।

दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है,

मरता है जो, एक ही बार मरता है।

तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे!

जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!

शब्दार्थ :

आन = मान-मर्यादा। अनय = अनीति। व्योम = आकाश। यमराज = मृत्यु का देवता। कंठ धरता है = मनुष्य को मृत्यु देता है।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

कवि ने हर स्थिति में अन्याय का विरोध करने और अपनी आन-बान-शान की रक्षा का सन्देश दिया है।

व्याख्या :

कवि कहता है कि अपनी आन (मान-मर्यादा) को मत छोड़ो, चाहे इसकी रक्षा के लिए तुम्हें अपना सिर भी क्यों ने कटाना पड़े। कभी भी अनीति के सामने झुको मत, चाहे फिर आकाश ही क्यों न फट जाए। कवि मनुष्यों को सचेत करते हुए कहता है कि मृत्यु का देवता यमराज किसी भी व्यक्ति के प्राणों को दो बार नहीं लेता है। जिसे भी मरना होता है, वह एक ही बार मरता है। अतः भय छोड़कर अनीति का डटकर विरोध करो। कवि कहता है कि तुममें इतना साहस होना चाहिए कि तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चढ़ बैठो। यदि तुममें जीने की इच्छा है तो फिर मौत से भी डरो मत।

विशेष :

आन-बान-शान की रक्षा का उपदेश दिया है।

भाषा लाक्षणिक है।

वीर रस।

(3) स्वातन्त्र्य जाति की लगन, व्यक्ति की धुन है,

बाहरी वस्तु यह नहीं, भीतरी गुण है।

नत हुए बिना जो अशनि-घात सहती है,

स्वाधीन जगत् में वही जाति रहती है।

वीरत्व छोड़, पर-का मत चरण गहो रे!

जो पड़े आन, खुद ही सब आग सहो रे!

शब्दार्थ :

स्वातन्त्र्य = स्वतन्त्रता की। नत = झुकना। अशनिघात = वज्राघात। वीरत्व = वीरता को।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

कवि कहता है कि स्वाधीन जगत में वही जाति जीवित रहती है जो अपनी रक्षा के लिए कठोर से कठोर एवं भीषण विपत्तियों का मुकाबला करती है।

व्याख्या :

कवि कहते हैं कि स्वतन्त्रता की लगन व्यक्ति विशेष की धुन हुआ करती है। यह कोई बाहरी वस्तु नहीं अपितु यह तो भीतरी गुण है। बिना झुके हुए जो जाति वज्रों का आघात सहती है, वही जाति स्वाधीन संसार में जीवित रह सकती है।

अतः हे वीर पुरुषो! वीरता का बाना छोड़कर अन्य किसी का चरण मत पकड़ो। जो कोई भी परिस्थिति आ जाये, उसका सामना बिना संकोच के तुम्हें स्वयं करना होगा।

विशेष :

अपनी जाति एवं आन की रक्षा के लिए हमें बड़ी से बड़ी विपत्ति को सहन करना होगा।

लाक्षणिक शैली।

वीर रस।

(4) जब कभी अहं पर नियति चोट देती है.

कुछ चीज अहं से बड़ी जन्म लेती है।

नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है,

वह उसे और दुर्घर्ष बना जाती है।

चोटें खाकर विफरो, कुछ अधिक तनो रे!

धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!

शब्दार्थ :

नियति = भाग्य, ईश्वरीय सत्ता। भीषण = भयानक। दुर्घर्ष = कठिन। स्फुलिंग = ज्योति-कण।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

कवि का कथन है कि विपत्तियों से मानव और अधिक ताकतवर बन जाता है।

व्याख्या :

कवि कहते हैं कि जब कभी भी अहं (आत्म सम्मान) पर भाग्य चोट देता है, तब अहं से बड़ी वस्तु का जन्म हुआ करता है। मनुष्य पर जब भी भीषण विपत्ति आती है, तो वह उसे और कठोर बना देती है।

अतः हे वीर पुरुषो! चोटें खाकर बिफर पड़ो तथा कुछ। अधिक तन जाओ। तुम अपनी वीरता के क्रोध से धधक पड़ो और ज्योति-कण से बढ़कर अंगार बन जाओ।

विशेष :

कवि ने मनुष्यों को विपत्ति में न घबड़ाने का उपदेश दिया है।

लाक्षणिक शैली।

वीर रस।

(5) स्वर में पावक नहीं; वृथा वन्दन है।

वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रन्दन है;

सिर जिसके असिंघात रक्त चन्दन है।

भ्रामरी उसी का करती अभिनन्दन है।

दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं।

ऊँची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं।

शब्दार्थ :

पावक = अग्नि। वृथा = बेकार का। क्रन्दन = रोना। असिंघात = तलवार की चोट। भ्रामरी =दुर्गा। दानवी = राक्षसी। पथ = रास्ते।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।

प्रसंग :

कवि मनुष्यों में वीरता का संचार करने का उपदेश देता है।

व्याख्या :

कवि कहता है कि यदि तुम्हारी वाणी में आग जैसी गर्मी नहीं है तो फिर तुम्हारा क्रन्दन करना वृथा है। यदि तुममें वीरता नहीं है तो फिर सभी प्रकार की विनम्रता केवल रोना है। जिस व्यक्ति के सिर पर तलवार की चोट से रक्त और चन्दन लगा होता है, दुर्गा या काली माँ उसी व्यक्ति का अभिनन्दन किया करती हैं। कवि कहता है कि राक्षसी रक्त से सभी पाप धुल जाया करते हैं। साथ ही ऐसी वीरता से ऊँची मनुष्यता का मार्ग खुल जाया करता है।

विशेष :

कवि मनुष्यों में वीरता के संचार का उपदेश देता है।

लाक्षणिक शैली।

वीर रस।

(6) जीवन गति है, वह नित अरुद्ध चलता है,

पहला प्रमाण पावक का, वह जलता है।

सिखला निरोध-निज्वलन धर्म छलता है।

जीवन तरंग गर्जन है, चंचलता है।

धधको अभंग, पाल-पिवल अरुण जलो रे!

धरा रोके यदि राह, विरुद्ध चलो रे!

शब्दार्थ :

अरुद्ध = बिना रुके। पावक = अग्नि। निरोध = रुकना। निर्व्वलन = जिसमें जलने की क्षमता न हो। अभंग = बिना रुकावट के। अरुण = सूर्य। धरा = पृथ्वी।

सन्दर्भ :

पूर्ववत्।।

प्रसंग :

कवि कहता है कि जीवन की सार्थकता निरन्तर चलते रहने में है। यदि हमारे सत्कार्य में कोई भी बाधा डाले, तो हमें उसका विरोध करना चाहिए।

व्याख्या :

कवि कहता है कि जीवन उसे ही कहते हैं जिसमें गति होती है और वह जीवन बिना किसी के रोके निरन्तर चलता रहता है। अग्नि का पहला प्रमाण ही उसमें जलने का गुण होता है। जो धर्म हमें रुकने तथा न जलने का उपदेश देता है, वह वास्तव में धर्म न होकर छलावा है। जीवन तो चंचलता एवं गर्जन में ही निवास करता है।

हे वीरो! बिना किसी रुकावट के तुम सूर्य के समान निरन्तर धधकते रहो। यदि पृथ्वी भी तुम्हारी राह रोकती है, तो तुम उसके विरुद्ध भी चल पड़ो।

विशेष :

जीवन की सार्थकता चलते रहने में है।

लाक्षणिक शैली।

वीर रस।

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