हिन्दी समर्थकों को कामकाजी भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग करते देखकर मुझे उन छद्म नेताओं की याद आ जाती है जो खद्दर के कुर्ते के नीचे विलायती बनियान पहनते हैं और मीटिंग में पार्टी के काम से जाते समय यूनीफार्म की तरह खद्दर के वस्त्र धारण कर लेते हैं । तब विचारणीय यह है कि हिन्दी संविधान में राजभाषा के पद पर क्योंकर प्रतिष्ठित हो सकेगी ? विश्व के लगभग दो सौ देशों में भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसकी पहचान एक विदेशी नाम के माध्यम से है - इण्डिया दैट इज भारत और यही एक ऐसा देश है जिसकी अपनी कोई भाषा नहीं है । उसके निवासी विदेशी भाषा के प्रयोग को गर्व की वस्तु मानते हैं । हलवाइयों के साइन बोर्डों से लेकर बड़े - से - बड़े धन्ना शिक्षाविदों के निमन्त्रण - पत्र अंग्रेजी का प्रयोग करके अपने को धन्य समझते हैं । भाषायी हीनता का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है । हीनता जब गर्व करने की वस्तु बन जाए , तब उससे मुक्ति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है ।
भारत की राजभाषा हिन्दी
10 मई , 1963 का दिन हिन्दी के लिए वह अशुभ काला दिवस था जब राजभाषा अधिनियम संख्या क -19 के अनुसार हिन्दी को अनिश्चितकाल के लिए सलीव पर टाँग दिया गया - यह कहकर जब तक एक भी राज्य नहीं चाहेगा , तब तक हिन्दी केन्द्र की यानी भारत की राजभाषा नहीं बनेगी । उदारता के पर्दे की ओट में लोकतन्त्र की हत्या एवं राष्ट्रभाषा के साथ मनमानी करके भाषाई आत्महत्या का उदाहरण विश्व इतिहास में खोजने पर भी नहीं मिल सकेगा ।
हिंदी भाषा का राजनीतिकरण
सदियों से विद्वज्जन , मनीषी , राजनीतिक नेता , धर्माचार्य , समाजसेवी राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रयोग करते आ रहे हैं और करते हैं । भाषा का राजनीतिकरण स्वतन्त्र भारत के जीवन का सर्वाधिक दुःखद अध्याय है । स्वतन्त्रता के बाद अन्यान्य कारणों से हिन्दी के प्रयोग एवं प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि हुई है , परन्तु राजकाज के रूप में पटरानी अंग्रेजी ही बनी हुई है । इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से भारतवासियों के भाग्य का छुटकारा किस प्रकार है ? इस पर हमारे युवा - वर्ग को विचार करना है । कहीं वह दिन न आ जाए जब हमारे देशवासी अपनी भाषा न बता सकें और वे इस समस्या से ग्रसित हो जाएं , क्योंकि जिस देश की अपनी भाषा न हो , वह देश गूंगा माना जाता है ।
परम्पराओं से दूरी बना रही है दूसरी भाषाएँ
अंग्रेजी शिक्षितजन अपनी धरती , अपने परिवेश , अपनी संस्कृति , परम्पराओं से दूर होते जा रहे हैं , कटते जा रहे हैं । वे अपने को सामान्य धरतीपुत्रों से विशिष्ट अभिजात्य समझते हैं । यह मनोवृत्ति उन्हें स्वयं अपने से भी दूर बना रही है । अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर जब प्रत्येक देश का निवासी अपनी भाषा में अपना परिचय दे रहा हो , और अकेले आप अपना परिचय किसी विदेशी भाषा में दे रहे हों , वहाँ आपको किसी गुलाम अथवा गूंगे देश का वासी समझा जाए , तो इसमें परखैया का दोष कहेंगे अथवा अपने माल को खोटा मानकर सिर नीचा कर लेंगे ।
हिन्दी के दुर्दिन
अंग्रेजी के पक्षधर महात्मा गांधी के सामने किसी सीमा तक दबे - दबे से रहते थे । राजनीतिक रंगमंच से उनके महाप्रस्थान के बाद हिन्दी के दुर्दिन आ गए । राजर्षि पुरुषोत्तम टण्डन , सेठ गोविंद दास , पं. बालकृष्ण शर्मा ' नवीन ' , भैया साहब पं . श्रीनारायण चतुर्वेदी , प्रभृति हिन्दी सेवी महारथी जीवन के अन्तिम क्षणों तक हिन्दी की अस्मिता के रक्षार्थ लड़ते रहे , इसके लिए उन्हें कभी - कभी अपना सर्वस्व दाँव पर लगाना पड़ा , परन्तु दुर्भाग्यवश वे भी मैकाले के मानसपुत्रों की दुरभिसंधियों के मकड़जाल से हिन्दी को मुक्ति नहीं दिला सके । सौभाग्य का विषय है हमारे युवा - वर्ग के अनेक प्रत्याशी प्रतियोगी परीक्षाओं में हिन्दी माध्यम अपनाने के प्रति प्रवृत्त हुए हैं और श्रेष्ठ अंकों के आधार पर चयनित हुए हैं । हमारा युवा - वर्ग यदि इससे प्रेरणा ग्रहण कर सके , तो राजभाषा हिन्दी का भविष्य किसी सीमा तक आशाजनक बन जाए । इस सन्दर्भ में यह निवेदन करना आवश्यक है कि हम अन्य किसी भाषा की तरह अंग्रेजी भाषा और उसके साहित्य के ज्ञान को उपयोगी मानते हैं , किसी सीमा तक आवश्यक भी- इसके विरोधी होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है ।
राष्ट्रभाषा का अपमान देश - प्रेम में बाधक
हमारा मन्तव्य तो केवल यह है कि हम अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा को अपनी पहचान अथवा अस्मिता का पर्याय समझने की बात न करें । वास्तव में अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान देश - प्रेम में बाधक है और हमें - अपनी परम्परा से विच्छिन्न करता है । हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि हिन्दी के विरोधी अंग्रेजी का पक्ष लेते हैं , वे अपनी भाषा - बंगला , तमिल आदि किसी भाषा को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने का प्रस्ताव नहीं करते हैं । यह वृत्ति शुद्ध मानसिक दासता की प्रतीक है । जिन्हें गोरी चमड़ी के नाज़ उठाने में खुश किस्मती का अहसास होता हो , उनसे हमें कुछ नहीं कहना है । महात्मा गांधी का यह कथन द्रष्टव्य है " स्वयंसिद्ध बात को सिद्ध करने की जरूरत नहीं होती कि किसी देश के बच्चों को अपनी राष्ट्रीयता बचाए रखने के लिए अपनी ही स्वदेशी भाषा में या भाषाओं के जरिए ऊँची - से - ऊँची सभी शिक्षाएं मिलनी चाहिए । यह स्वयं स्पष्ट है कि किसी देश के युवक न तो वहाँ की प्रजा से जीवन - सम्बन्ध पैदा कर सकते हैं , जब तक वे ऐसी भाषा के जरिए शिक्षा पाकर उसे ज़ज्य न कर लें जिसे प्रजा समझ सके ।
स्वदेश प्रेम और राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रेम में कोई अन्तर नहीं
अंग्रेजी द्वारा की जाने वाली राष्ट्र की हानि के विरोध में 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही आवाज उठाई गई थी । केशवचन्द्र सेन , महर्षि दयानंद सरस्वती , महात्मा गांधी , राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन , डॉ . राम मनोहर लोहिया आदि देशभक्तों का एक स्वर से यही कहना रहा है कि " हमें अंग्रेजी हुकूमत की तरह , भारतीय संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को यहाँ से निकाल बाहर करना चाहिए । " महात्मा गांधी कहा करते थे , " मैं अंग्रेजी को प्यार करता हूँ , लेकिन अंग्रेजी अगर उस जगह को हड़पना चाहती है , जिसकी वह हकदार नहीं है , तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा । " वस्तुतः गांधीजी की दृष्टि में स्वदेश प्रेम और राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रेम में कोई अन्तर नहीं था , दोनों उनके लिए समान महत्व की वस्तुएं थीं ।
अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा
अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा को प्रतिष्ठित करने के लिए सौ वर्ष से अधिक समय से संघर्ष किया जा रहा है , पर छोटे से अंग्रेजी के प्रेमी वर्ग ने राष्ट्रीयता , राष्ट्र की समग्रता , अखण्डता , एकात्मकता , हमारी प्रज्ञा , मनीषा और बौद्धिकता को भी क्षतिग्रस्त किया है ।
उपसंहार
हमको यह देखकर प्रसन्नता है कि आपने परीक्षा / प्रतियोगिता के माध्यम हेतु हिन्दी का वरण किया है । यदि आपने शुद्ध सुविधा की दृष्टि से किया है , तो हमें आपसे कुछ नहीं कहना है । यदि आपने हिन्दी के प्रति प्रेम के कारण किया है , जबकि आप अंग्रेजी माध्यम के प्रति उतने ही समर्थ हैं , तब हमें आपसे निवेदन करना है कि आप हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा को बनाए रहें और देश की अस्मिता की सुरक्षा एवं उसकी स्थापना हेतु देशाभिमान के नाभिक बन जाएं । आप अपने कार्य में हिन्दी का प्रयोग करें और ऐसा करते हुए हीनता का नहीं , बल्कि गर्व का अनुभव करें । हिन्दी के नाम पर संघर्ष करने वालों की आत्माओं के आशीर्वाद आपके साथ हैं ।
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