राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 क्या है जानिये। National Policy on Education 1986 | Various info

Ashok Nayak
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भारतीय संविधान (Indian Constitution) के चौथे भाग में वर्णित नीति निर्देशक सिद्धांतों में यह कहा गया है कि प्राथमिक स्तर तक के सभी बच्चों को अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा (free education) प्रदान की जानी चाहिए। 1948 में डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ ही भारत में शिक्षा व्यवस्था को व्यवस्थित करने का काम शुरू हो गया था। (Read in english)

1952 में लक्ष्मणस्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग और 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की सिफारिशों के आधार पर, शिक्षा नीति पर एक प्रस्ताव 1968 में प्रकाशित किया गया था जिसमें 'प्रतिबद्ध' राष्ट्रीय विकास, चरित्र और कुशल' युवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया था।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मई 1986 में लागू की गई थी, जो अभी भी लागू है। इसी बीच 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति और प्रो. यशपाल समिति का गठन किया गया।


Table of contents (TOC)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 क्या है जानिये। National Policy on Education 1986 | Various info


भाग 1

भूमिका

1.1 मानव इतिहास के आदिकाल से शिक्षा का विविध भांति विकास एवं प्रसार होता रहा है। प्रत्येक देश अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता को अभिव्यक्ति देने और पनपाने के लिए और साथ ही समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी विशिष्ट शिक्षा प्रणाली विकसित करता है, लेकिन देश के इतिहास में कभी-कभी ऐसा समय आता है, जब मुद्दतों से चले आ रहे उस सिलसिले को एक नई दिशा देने की नितान्त जरूरत हो जाती है। आज वही समय है।

1.2 हमारा देश आर्थिक और तकनीकी लिहाज से उस मुकाम, पर पहुंच गया है जहाँ से हम अब तक के संचित साधनों का इस्तेमाल करते हुए समाज के हर वर्ण को पफायदा पहुंचाने का प्रबल प्रयास करें। शिक्षा उस लक्ष्य तक पहुंचने का प्रमुख साधनहै।

1.3 इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने जनवरी, 1985 में यह घोषणा की थी कि एक नई शिक्षा नीति निर्मित की जायेगी। शिक्षा की मौजूदा हालत का जायजा लिया गया और एक देशव्यापी बहस इस विषय पर हुई। कई स्रोतों से सुझाव व विचार प्राप्त हुए, जिन पर कापफी मनन-चिंतन हुआ।


1968 की शिक्षा नीति और उसके बाद

1.4 1968 की राष्ट्रीय नीति आजादी के बाद के इतिहास में एक अहम कदम थी। उसका उद्देश्य राष्ट्र की प्रगति को बढ़ाना तथा सामान्य नागरिकता व संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ करना था। उसमें शिक्षा प्रणाली के सर्वांगीण पुनर्निर्माण तथा हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता को ऊँचा उठाने पर जोर दिया गया था। साथ ही उस शिक्षा नीति में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर नैतिक मूल्यों को विकसित करने पर तथा शिक्षा और जीवन में गहरा रिश्ता कायम करने पर भी ध्यान दिया गया था।

1.5 1968 की नीति लागू होने के बाद देश में शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। आज गांवों में रहने वाले 90 प्रतिशत से अधिक लोगों के लिए एक किलोमीटर के पफासले के भीतर प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध हैं। अन्य स्तरों पर भी शिक्षा की सुविधाएं पहले के मुकाबले कहीं अधिक बढ़ी हैं। 

1.6 पूरे देश में शिक्षा की समान संरचना और लगभग सभी राज्यों द्वारा 10+2+3 की प्रणाली को मान लेना शायद 1968 की नीति की सबसे बड़ी देन है। इस प्रणाली के अनुसार स्कूली पाठ्यक्रम में छात्र-छात्राओं को एक समान शिक्षा देने के अलावा विज्ञान व गणित को अनिवार्य विषय बनाया गया और कार्यानुभव को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया।

1.7 स्नातक स्तर की कक्षाओं के पाठ्यक्रम बदलने की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई। स्नातकोतर शिक्षा तथा शोध के लिए उच्च अध्ययन के केन्द्र स्थापितकिए गए। हम देश की आवश्यकता के अनुसार शिक्षित जनशक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति भीकर सके हैं।

1.8 यद्यपि ये उपलब्धियाँ अपने आप में महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि 1968 की शिक्षा नीति के अधिकांश सुझाव कार्यरूप में परिणत नहीं हो सके, क्योंकि क्रियान्वयन की पक्की योजना नहीं बनी, न स्पष्ट दायित्व निर्धारित किए गए औरन ही वित्तीय एवं संगठन संबंधी व्यवस्थाएं हो सकी। नतीजा यह है कि विभिन्न वर्गों तक शिक्षा को पहुँचाने, उसका स्तर सुधारने और विस्तार करने और आर्थिक साधन जुटाने जैसे महत्त्वपूर्ण काम नहीं हो पाए, और आज इन कमियों ने एक बड़े अंबार का रूप धारण कर लिया है। इन समस्याओं का हल निकालना वक्त की पहली जरूरत है।

1.9 मौजूदा हालात ने शिक्षा को एक दुराहे पर ला खड़ा किया है। अब न तो अब तक होते आये सामान्य विस्तार से, और न ही सुधार के वर्तमान तौर-तरीकों या रफ्रतार से काम चल सकेगा।

1.10 भारतीय विचारधारा के अनुसार मनुष्य स्वयं एक बेशकीमती संपदा है, अमूल्य संसाधन है। जरूरत इस बात की है कि उसकी परवरिश गतिशील एवं संवेदनशील हो और सावधानी से की जाये। हर इंसान का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व होता है, जन्म से मृत्युपर्यन्त, जिन्दगी के हर मुकाम पर उसकी अपनी समस्याएं और जरूरतें होती हैं। विकास की इस पेचीदा और गतिशील प्रक्रिया में शिक्षा अपना उत्प्रेरक योगदान दे सकें, इसके लिए बहुत सावधानी से योजना बनाने और उस पर पूरी लगन के साथ अमल करने की आवश्यकता है।

1.11 आज भारत राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें परम्परागत मूल्यों के खास का खतरा पैदा हो गया है और समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र तथा व्यावसायिक नैतिकता के लक्ष्यों की प्राप्ति में लगातार बाधाएं आ रही हैं।

1.12 देहात में रोजमर्रा की सहूलियतों के अभाव में पढ़े-लिखे युवक गांवों में रहने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए गांव और शहर के पफ़र्क को कम करने और ग्रामीण क्षेत्रो में रोजगार के विविध और व्यापक साधन उपलब्ध कराने की बड़ी जरूरत है।

1.13 आने वाले दशकों में जनसंख्या की बढ़ती हुई रफ्ऱतार पर काबू पाना होगा। इस समस्या को हल करने में जो सबसे अहम् उपाय कारगर साबित हो सकता है, वह है महिलाओं का साक्षर और शिक्षित होना।

1.14 अगले दशक नए तनावों और समस्याओं के साथ अभूतपूर्व अवसर भी प्रदान करेंगे। उन तनावों से निपटने और अवसरों का पफायदा उठाने के लिए मानव संसाधन को नए ढंग से विकसित करना होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह भी जरूरी होगा कि वे नए विचारों को सतत् सृजनशीलता के साथ आत्मसात कर सकें। उन पीढ़ियों में मानवीय मूल्यों और सामाजिक न्याय के प्रति गहरी प्रतिबद्धता प्रतिष्ठित करनी होगी। यह सब अधिक अच्छी शिक्षा से ही संभव है।

1.15 अतएव इन नई चुनौतियों और सामाजिक आवश्यकताओं का तकाजा है कि सरकार एक नई शिक्षा नीति तैयार करें और उसकी क्रियान्वित करे। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।


भाग 2

शिक्षा का सार और उसकी भूमिका

2.1 हमारे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ‘‘सबके लिए शिक्षा’’ हमारे भौतिक और आध्यात्मिक विकास की बुनियादी आवश्यकता है।

2.2 शिक्षा सुसंस्कृत बनाने का माध्यम है। यह हमारी संवेदनशीलता और दृष्टि को प्रखर करती है, जिससे राष्ट्रीय एकता पनपती है, वैज्ञानिक तरीकेके अमल की संभावना बढ़ती है और समझ और चिंतन में स्वतन्त्रता आती है। साथ ही शिक्षा हमारे संविधान में प्रतिष्ठित समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के लक्ष्यों की प्राप्ति में अग्रसर होने में हमारी सहायता करती है।

2.3 शिक्षा के द्वारा ही धार्मिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों के लिए जरूरत के अनुसार जनशक्ति का विकास होता है। शिक्षा के आधार पर ही अनुसंधान और विकास को सम्बल मिलता है जो राष्ट्रीय आत्म-निर्भरता की आधारशिला है।

2.4 कुल मिलाकर, यह कहना सही होगा कि शिक्षा वर्तमान तथा भविष्य के निर्माण का अनुपम साधन है। इसी सिद्धांत को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माण की धुरी माना गया है।


भाग 3

राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था

3.1 जिन सिद्धांतों पर राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था की परिकल्पना की गई है वे हमारे संविधान में ही निहित हैं।

3.2 राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था का मूल मंत्र यह है कि एक निश्चित स्तर तक हर शिक्षार्थी को बिना किसी जात-पात, धर्म स्थान या लिंग भेद के, लगभगएक जैसी अच्छी शिक्षा उपलब्ध हो। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये सरकार उपुयक्त रूप से वित्तपोषित कार्यक्रमों की शुरूआत करेगी। 1968 की नीति में अनुशंसित सामान्य स्कूल प्रणाली को क्रियान्वित करने की शिक्षा में प्रभावी कदम उठाये जाएंगे।

3.3 राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत यह जरूरी है कि सारे देश में एक ही प्रकार की शैक्षिक संरचना हो। 10+2+3 के ढांचे को पूरे देश में स्वीकार कर लिया गया है। इस ढांचे के पहले दस वर्षों के संबंध में यह प्रयत्न किया गया जाएगा कि उसका विभाजन इस प्रकार हो : प्रारंभिक शिक्षा में 5 वर्ष का प्राथमिक स्तर और 3 वर्ष का उच्च प्राथमिक स्तर, तथा उसके बाद 2 वर्ष का हाई स्कूल।

3.4 राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था पूरे देश के लिये एक राष्ट्रीय शिक्षाक्रम के ढांचे पर आधारित होगी जिसमें एक ‘‘सामान्य केन्द्रिक’’ ;कॉमन कोरद्ध होगा और अन्य हिस्सों की बाबत लचीलापन रहेगा, जिन्हें स्थानीय पर्यावरण तथा परिवेश के अनुसार ढाला जा सकेगा। 

‘‘सामान्य केन्द्रिक’’ में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, संवैधानिक जिम्मेदारियों तथा राष्ट्रीय अस्मिता से संबंधित अनिवार्य तत्त्व शामिल होंगे। ये मुद्दे किसी एक विषय काहिस्सा न होकर लगभग सभी विषयों में पिरोये जाएंगे। इनके द्वारा राष्ट्रीय मूल्यों को हर इंसान की सोच और जिंदगी का हिस्सा बनाने की कोशिश की जायेगी। 

इन राष्ट्रीय मूल्यों में ये बातें शामिल हैं  : हमारी समान सांस्कृतिक धरोहर, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, स्त्री-पुरूषों के बीच समानता, पर्यावरणका संरक्षण, सामाजिक समता, सीमित परिवार का महत्त्व और वैज्ञानिक तरीके के अमल की जरूरत। यह सुनिश्चितकिया जायेगा कि सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के अनुरूप ही आयोजितहों।

3.5 भारत ने विभिन्न देशों में शांति और आपसी भाईचारे के लिये सदा प्रयत्न किया है, और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्शों को संजोया है। इस परंपरा के अनुसार शिक्षा-व्यवस्था का प्रयास यह होगा कि नई पीढ़ी में विश्वव्यापी दृष्टिकोण सुदृढ़ हो तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना बढ़े। शिक्षा के इस पहलू की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

3.6 समानता के उद्देश्य को साकार बनाने के लिये सभी को शिक्षा का समान अवसर उपलब्ध करवाना ही पर्याप्त नहीं होगा, ऐसी व्यवस्था होना भीजरूरी है जिससे सभी को शिक्षा में सपफलता प्राप्त करने के समान अवसर मिले। इसके अतिरिक्त, समानता की मूलभूत अनुभूति केन्द्रिक शिक्षाक्रम के द्वारा करवाई जाएगी। वास्तव में राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य है कि सामाजिक माहौल और जन्म के संयोग से उत्पन्न पूर्वग्रह और कुंठाएं दूर हों।

3.7 प्रत्येक चरण पर दी जाने वाली शिक्षा का न्यूनतम स्तर तय किया जायेगा। ऐसे उपाय भी किये जाएंगे कि विद्यार्थी देश के विभिन्न भागोंकी संस्कृति, परंपराओं और सामाजिक व्यवस्था को समझ सकें। संपर्क भाषा को बढ़ावा देने के अलावा, पुस्तकों का एक से दूसरी भाषा में अनुवाद करने और बहुभाषी शब्द-कोशों और शब्दावलियों के प्रकाशन के लिये भी कार्यक्रम चलाये जायेंगे। युवा वर्ग को अपनी कल्पना और सूझ-बूझ के अनुसार देश की महिमाऔर गरिमा पहचानने के लिये प्रोत्साहित किया जाएगा।

3.8 उच्च शिक्षा, खास तौर से तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता रखने वाले हर विद्यार्थी को बराबरी के मौके दिये जाने की व्यवस्था की जायेगी और एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाकर अध्ययन करने की सुविधा दी जायेगी। विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा की अन्य संस्थाओं के सावदेशिक स्वरूप पर जोर दिया जाएगा।

3.9 शोध और विकास तथा विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के विषयों में देश की विभिन्न संस्थाओं के बीच व्यापक तानाबाना ;नेटवर्कद्ध स्थापित करने के लिये विशेष उपाय किए जायेंगे ताकि वे अपने-अपने साधन सम्मिलित कर राष्ट्रीय महत्त्व की परियोजनाओं में भाग ले सकें।

3.10 शिक्षा के पुनर्निर्माण के लिए, शिक्षा में असमानताओं को कम करने के लिए, प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनिक के लिए, प्रौढ़ साक्षरता के लिए, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान के लिए, तथा इस प्रकार के अन्य लक्ष्यों के लिए साधन जुटाने का दायित्वसमूचे राष्ट्र पर होगा।

3.11 आजीवन शिक्षा शैक्षिक प्रक्रिया का एक मूलभूत लक्ष्यहै, और सार्वजनीन साक्षरता उसका अभिन्न पहलू। युवा वर्ग, गृहिणियों, किसानों, मजदूरों, व्यापारियों आदि को अपनी पसंद व सुविधा के अनुसार अपनी शिक्षा जारी रखने के अवसर मुहÕया करवाए जायेंगे। भविष्य में खुली शिक्षा एवं दूरशिक्षण की ओर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा।

3.12 विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकीशिक्षा परिषद्, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् और भारतीय चिकित्सा परिषद् जैसी संस्थाओं को और अधिक मजबूत बनाया जाएगा ताकि वे राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था को संवारने में अपनीभूमिका अदा कर सकें। 

इन सभी संस्थाओं को एक समेकित योजना के द्वारा जोड़ा जाएगा ताकि इनमें आपस में कार्यात्मक संबंध स्थापित हो तथा अनुसंधान और स्नातकोतर शिक्षा के कार्यक्रम मजबूत बन सकें। इन संगठनों को, तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान तथा अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा संस्थान की शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में सहभागी बनाया जाएगा।


सार्थक सहभागिता

3.13 वर्ष 1976 का संविधान संशोधन जिसके द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया गया, एक दूरगामी कदम था। उसमें यह निहित है कि शैक्षिक, वित्तीय तथा प्रशासनिक दृष्टि से राष्ट्रीय जीवन से जुड़े हुए इस महत्त्वपूर्ण मामले में केन्द्र औरराज्यों के बीच दायित्व की नई सहभागिता स्थापित हो। 

शिक्षा के क्षेत्र में राज्यों की भूमिकाऔर उनके दायित्व में मूलतः कोई परिवर्तन नहीं होगा, लेकिन केन्द्रीय सरकार निम्नलिखित विषयों में अब तक से अधिक जिम्मेदारी स्वीकार करेगीः- शिक्षा के राष्ट्रीय तथा समाकलनात्मक ;इंटेग्रेटिवद्ध रूप को बल देना, गुणवत्ता एवं स्तर बनाए रखना ;जिसमें सभी स्तरों पर शिक्षकों के शिक्षण-प्रशिक्षण की गुणवत्ता एवं स्तर शामिल हैद्ध, विकास के निमित्त जनशक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शैक्षिक व्यवस्थाओं का अध्ययन और देखरेख, शोध एवं उच्च अध्ययन की जरूरतों को पूरा करना, शिक्षा, संस्कृति तथा मानव संसाधन विकास के अंतर्राष्ट्रीय पहलुओं पर ध्यान देना और सामान्य तौर पर शिक्षा में प्रत्येक स्तर पर उत्कृष्टता लाने का निरन्तर प्रयास। समवर्तिता एक ऐसी भागीदारी है जो स्वयं में सार्थक व चुनौतीपूर्ण है, और राष्ट्रीय शिक्षा नीति इसे हर मायने में पूरा करने की ओर उन्मुख रहेगी।

भाग 4

समानता के लिए शिक्षा

विषमताएँ

4.1 नई शिक्षा नीति विषमताओं को दूर करने पर विशेष बल देगी और अब तक वंचित रहे लोगों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के समान अवसर मुहÕया करेगी। महिलाओं की समानता हेतु शिक्षा

4.2 शिक्षा का उपयोग महिलाओं की स्थिति में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए एक साधन के रूप में किया जायेगा। अतीत से चली आ रही विकृतियोंऔर विषमताओं को खत्म करने के लिए शिक्षा-व्यवस्था का स्पष्ट झुकाव महिलाओं के पक्ष में होगा। राष्ट्रीय शिक्षा-व्यवस्था ऐसे प्रभावी दखल करेगी जिनसे महिलाएं, जो अब तक अबला समझी जाती रही हैं, समर्थ और सशक्त हों। 

नए मूल्यों की स्थापना के लिए शिक्षण संस्थाओं के सक्रिय सहयोग सेपाठ्यक्रमों तथा पठन-पाठन सामग्री की पुनर्रचना की जायेगी तथा अध्यापकों व प्रशासकों का पुनःप्रशिक्षण किया जायेगा। महिलाओं से संबंधित अध्ययन को विभिन्न पाठ्यचर्याओं के भाग के रूप में प्रोत्साहन दिया जायेगा। 

इस काम को सामाजिक पुनर्रचना का अभिन्न अंग मानते हुए इसे पूर्णकृत संकल्प होकर किया जायेगा और शिक्षा संस्थाओं को महिला विकास के सक्रिय कार्यक्रम शुरू करने के लिए प्रेरित किया जायेगा।

4.3 महिलाओं में साक्षरता प्रसार को तथा उन रुकावटों को दूर करने को जिनके कारण लड़कियां प्रारंभिक शिक्षा से वंचित रह जाती हैं, सर्वोपरि प्राथमिकता दी जायेगी। इस काम के लिए विशेष व्यवस्थाएँ की जायेंगी, समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित किए जायेंगे और उनके कार्यान्वयन पर कड़ी निगाह रखी जायेगी। 

विभिन्न स्तरों पर तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी पर खास जोर दिया जायेगा। लड़के और लड़कियों में किसी प्रकार का भेद-भाव न बरतने की नीति पर पूरा जोर देकर अमल किया जायेगा ताकि तकनीकी तथा व्यावसायिक पाठ ्यक्रमों में पारंपरिक रवैयों के कारण चले आ रहे लिंगमूलक विभाजन ;सेक्स स्टीरियोटाइपिंगद्ध को खत्म किया जा सके तथा गैर-परम्परागत आधुनिक काम-धंधों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ सके। इसी प्रकार मौजूदा और नई प्रौद्योगिकी में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जायेगी। अनुसूचित जातियों की शिक्षा

4.4 अनुसूचति जातियों के शैक्षिक विकास पर बल दिया जायेगा जिससे कि वे गैर-अनुसूचित जाति के लोगों के बराबर आ सकें। यह बराबरी सभी स्तरों पर इन चारों आयामों में होनी जरूरी है : ग्रामीण पुरूषों में, ग्रामीण स्त्रियों में, शहरी क्षेत्रों के पुरूषों में और शहरी क्षेत्रा ें की स्त्रियों में। 4.5 इस मकसद के तहत नई नीति में ये उपाय सोचे गए हैं-

  • निर्धन परिवारों को इस प्रकार का प्रोत्साहन दिया जाए कि वे अपने बच्चों को 14 साल की उम्र तक नियमित रूप से स्कूल भेज सकें।
  • सपफाई कार्य, पशुओं की चमड़ी उतारने तथा चर्म शोधन जैसे व्यवसायों में लगे परिवारों के बच्चों के लिए मैट्रिक-पूर्व छात्रवृत्ति योजना पहली कक्षा से शुरू की जायेगी। ऐसे परिवारों की आय पर ध्यान दिए बिना, उनके सभी बच्चों को इस योजना में शामिल किया जायेगा तथा उनके लिए समयबद्ध कार्यक्रम शुरू किये जाएंगे।
  • ऐसी सुनियोजित व्यवस्थाएँ करना और जांच-पड़ताल की विधि स्थापित करना कि जिससे पता चलता रहे कि अनुसूचित जातियों के बच्चों के नामांकन होने, नियमित रूप से अध्ययन जारी रखने और पढ़ाई पूरी करनेकी प्रक्रिया में कहीं गिरावट तो नहीं आ रही है। साथ ही इन बच्चों की आगे की शिक्षा और रोजगार पाने की संभावना को बढ़ाने के उद्देश्य से उनके लिए उपचारात्मक पाठ्यचर्या की व्यवस्था करना।
  • अनुसूचित जातियों से शिक्षकों की नियुक्ति पर विशेष ध्यान देना।
  • जिला केन्द्रों पर अनुसूचित जातियों के छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधाएँ क्रमिक रूप से बढ़ाना।
  • स्कूल भवनों, बालवाड़ियों और प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों का स्थान चुनते समय अनुसूचित जाति के व्यक्तियों की सहूलियत पर विशेष ध्यान देना।
  • अनुसूचित जातियों के लिए शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम तथा ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम के साधनों का उपयोग करना।
  • अनुसूचित जातियों का शिक्षा की प्रक्रिया में समावेश बढ़ाने हेतु लगातार नये तरीकों की खोज जारी रखना।


अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा

4.6 अनसूचित जनजातियों को अन्य लोगों की बराबरी परलाने के लिए निम्नलिखित कदम तत्काल उठाए जाएंगेः

  • आदिवासी इलाकों में प्राथमिक शालाएं खोलने के काम के प्राथमिकता दी जाएगी। इन क्षेत्रों में स्कूल भवनों के निर्माण का कार्य शिक्षा के बजट, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, जनजातीय कल्याण योजनाओं आदि के अन्तर्गत प्राथमिकता के आधार पर हाथ में लिया जाएगा।
  • आदिवासियों की अपनी सांस्कृतिक एवं सामाजिक विशिष्टिता होती है और बहुधा उनकी अपनी बोलचाल की भाषाएँ होती हैं। पाठ्यक्रम निर्माण में तथा शिक्षण सामग्री तैयार करने में यह जरूरी है कि शुरूआतकी अवस्था में आदिवासी भाषाओं का उपयोग किया जाये, तथा ऐसा इन्तजाम किया जाये कि आदिवासी बच्चे शुरू के कुछ वर्षों के बाद क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर सके।
  • पढ़े-लिखे प्रतिभाशाली आदिवासी युवकों को प्रशिक्षण देकर अपने क्षेत्र में ही शिक्षक बनने के लिए प्रोत्साहन दिया जायेगा।
  • बड़ी तादाद में आश्रमशालाएं और आवासीय विद्यालय खोले जाएंगे।
  • अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जिन्दगी के तौर-तरीकों और उनकी खास जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ऐसी प्रोत्साहन योजनाएं तैयार की जाएंगी जिनसे शिक्षा प्राप्ति में आने वाली बाधाएं दूर हों। उच्च शिक्षा के लिए दी जाने वाली छात्रवृत्तियों में तकनीकी और व्यावसायिक पढ़ाई की ज्यादा महत्त्व दिया जायेगा। सामाजिक तथा मानसिक अवरोध को दूर करने के लिए विशेष उपचारात्मक पाठ्यचर्या और अन्य कार्यक्रम चला जाएंगे ताकि आदिवासी शिक्षार्थी सपफलता से अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें।
  • आंगनवाड़ियों, अनौपचारिक शिक्षा केन्द्र और प्रौढ़शिक्षा केन्द्र आदिवासी बहुल इलाकों में प्राथमिकता के आधार पर खोल जाएंगे।
  • आदिवासियों की समृद्ध सांस्कृतिक अस्मिता और विशाल सृजनात्मक प्रतिभा के बारे में चेतना सभी स्तरों के पाठ्यक्रमों का जरूरी हिस्सा होगी। शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े हुए दूसरे वर्ग और क्षेत्र

4.7 शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े हुए सभी वर्गों को, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, समुचित प्रोत्साहन दिया जायेगा। पहाड़ी और रेगिस्तानी जिलोंमें, दूरस्थ और दुर्गभ क्षेत्रों में और टापुओंमें पर्याप्त संख्या में शिक्षा संस्थाएं खोली जाएंगी।

अल्पसंख्यक

4.8 अल्पसंख्यकों के कुछ वर्ग तालीमी दौड़ में कापफी पिछड़े और वंचित हैं। समाजी इंसापफ और समता का तकाजा है कि ऐसे वर्गों की तालीम पर पूरा ध्यान दिया जाये। संविधान में उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति की हिपफाजत करने तथा अपनी शैक्षिक संस्थाएं कायम करने और उन्हें चलाने के जो अधिकार दिये गए हैं, वे भी इनमें शामिल हैं। साथ ही पाठ्यपुस्तकें तैयार करने में और सभी स्कूलों क्रियाकलापों में वस्तुगतता रखी जायेगी तथा ‘‘सामान्य केन्द्रिक शिक्षाक्रम’’ के अनुरूप राष्ट्रीय लक्ष्यों और आदर्शों के आधार पर एकता को बढ़ावा देने के लिये सभी सम्भव प्रयास किये जाएंगे-

विकलांग

4.9 शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से विकलांगों को शिक्षा देने का उद्देश्य यह होना चाहिये कि वे समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सकें, उनकी सामान्य तरीके से प्रगति हो और वे पूरे भरोसे और हिम्मत के साथ जिन्दगी जिएँ। इस संबंध में निम्नलिखित उपाय किये जाएंगेः-

  • विकलांगता अगर हाथ पैर की या मामूली सी है, तो ऐसेबच्चों की पढ़ाई आम बच्चों के साथ हो।
  • गंभीर रूप से विकलांग बच्चों के लिये छात्रावास वाले विशेष स्कूलों की जरूरत होगी। इस तरह के स्कूल, जहाँ तक सम्भव होगा, जिला मुख्यालयों में बनाए जाएंगे।
  • विकलांगों के लिये व्यावसायिक प्रशिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था की जायेगी।
  • शिक्षकों, खासतौर से प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षकों, के प्रशिक्षण कार्यक्रमों को भी नया रूप दिया जायेगा ताकि वे विकलांग बच्चों की कठिनाइयों को ठीक तरह से समझ कर उनकी सहायता कर सकें।
  • विकलांगों की शिक्षा के लिए स्वैच्छिक प्रयासों को हरसंभव तरीके से प्रोत्साहित किया जायेगा।

प्रौढ़ शिक्षा

4.10 हमारे प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है : सा विद्याया विमुक्तये, शिक्षा वह है जो अज्ञान और दमन से मुक्ति दिलाती है। शिक्षा की इस परिकल्पना के तहत हर व्यक्ति को लिखना-पढ़ना तो आना ही चाहिए क्योंकि आज के युग में यही सीखने का प्रमुख माध्यम है। इसी कारण साक्षरता और प्रौढ़ शिक्षा का महत्त्व अधिक है।

4.11 आज विकास का अहम् मुद्दा रहा है कि किस तरह कुशलताओं को निरंतर बढ़ाया जाए और समाज को जिस तरह की और जिस मात्रा में जनशक्तिकी जरूरत हो उसे तैयार किया जाये। विकास के कार्यक्रमों में उन लोगों की भागीदारी बहुतजरूरी है जिनको उनका लाभ मिलना है। 

प्रौढ़ शिक्षा को राष्ट्रीय लक्ष्यों से जोड़ा जायेगा। इन राष्ट्रीय लक्ष्यों में ये सब शामिल हैं : निर्धनता को दूर करना, राष्ट्रीय एकता, पर्यावरण संरक्षण, लोगों की सांस्कृतिक सृजनशीलता का संवर्धन, छोटे परिवार के आदर्श का पालन, महिलाओं की समानता, इत्यादि। प्रौढ़ शिक्षा के वर्तमान कार्यक्रमों का पुनरावलोकन करके उन्हें मजबूत बनाया जाएगा।

4.12 समूचे देश को निरक्षरता उन्मूलन के लिए निष्ठापूर्वक प्रतिबद्ध होना है, खासकर 15-35 आयुवर्ग के निरक्षर लोगों की। केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों, राजनैतिक दलों तथा उनके जन-संगठनों, जन-संचार के माध्यमों और शिक्षा संस्थाओं को विविध प्रकार के जन-साक्षरता कार्यक्रमों को सपफल बनाने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा। इस कार्य में शिक्षकों, युवावर्ग, छात्र-छात्राओं, स्वैच्छिक संस्थाओं और नियोजकों आदि को बड़े पैमाने पर शामिल करना होगा। 

शोध संस्थानों की सहायता से शैक्षिक पहलुओं में सुधार लाने के ठोस प्रयास किए जाएंगे। साक्षरता के अलावा, कार्यात्मक ज्ञान और कुशलताओं का विकास, तथा शिक्षार्थियों में सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता की समझ पैदा करना और इस स्थिति को बदल सकने की संभावना के प्रति उन्हें सचेत बनाना प्रौढ़ शिक्षा का अंग होगा।

4.13 विभिन्न पद्धतियों और माध्यमों का उपयोग करते हुए प्रौढ़ तथा सतत शिक्षा का एक व्यापक कार्यक्रम कार्यान्वित किया जाएगा। इसके अन्तर्गत निम्नप्रकार के कार्यक्रम आएंगे-

  • (क) ग्रामीण क्षेत्रों में सतत् शिक्षा केन्द्रों की स्थापना।
  • (ख) नियोजकों, मजदूर संगठनों और संबंधित एजेंसियों के द्वारा श्रमिकों की शिक्षा।
  • (ग) उच्च शिक्षा की संस्थाओं द्वारा सतत् शिक्षा।
  • (घ) पुस्तकों के लेखन व प्रकाशन को तथा पुस्तकालयों और वाचनालयों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन।
  • (ङ) जन-शिक्षण और समूह शिक्षण के साधन के रूप में रेडियो, दूरदर्शन और पिफल्मों का उपयोग।
  • (च) शिक्षार्थियों के समूहों और संगठनों का सृजन।
  • (छ) दूर-शिक्षण के कार्यक्रम।
  • (ज) स्वाध्याय और स्वयं-शिक्षण में सहायता की व्यवस्था।
  • (झ) आवश्यकता और रूचि पर आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रम।

भाग 5

विभिन्न स्तरों पर शिक्षा का पुनर्गठन

शिशुओं की देखभाल और शिक्षा

5.1 बच्चों से संबंधित राष्ट्रीय नीति इस बात पर विशेष बल देती है कि बच्चों के विकास पर पर्याप्त विनियोग किया जाये, विशेषकर ऐसे तबकोंपर जिन के बच्चों की पहली पीढ़ी बड़ी संख्या में शिक्षा प्राप्त कर रही है।

5.2 बच्चों के विकास के विभिन्न पहलुओं को अलग-अलगकरके नहीं देखा जा सकता। पौष्टिक भोजन व स्वास्थ्य को और बच्चों के सामाजिक,मानसिक, शारीरिक नैतिक और भावनात्मक विकास को समेकित रूप में ही देखना होगा। इस दृष्टि से शिशुओं की देखभाल और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा और इसे जहाँ भी संभव हो, समेकितबाल विकास सेवा कार्यक्रम के साथ जोड़ा जाएगा। प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण के संदर्भ मेंशिशुओं की देखभाल के केन्द्र खोले जाएंगे, जिससे अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने वालीलड़कियों को स्कूल जाने की सुविधा मिल सके। साथ ही निर्धन तबके की कार्यरत स्त्रियों को भी इन केन्द्रों से मदद मिल सकेगी।

5.3 शिशुओं की देखभाल और शिक्षा के केन्द्र पूरी तरह बाल-केन्द्रित होंगे। उनकी गतिविधियाँ खेल-कूद और बच्चों के व्यक्तित्व पर आधारित होगी। इस अवस्था में औपचारिक रूप से पढ़ना-लिखना नहीं सिखाया जाएगा। इस कार्यक्रम में स्थानीय समुदाय का पूरा सहयोग लिया जाएगा।

5.4 शिशुओं की देखभाल और पूर्व प्राथमिक शिक्षा के कार्यक्रमों को पूरी तरह समेकित किया जाएगा ताकि इससे प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा मिले और मानव संसाधन विकास में सामान्य रूप से सहायता मिल सके। इसके साथ ही स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम को और सुदृढ़ किया जायेगा। प्रारम्भिक शिक्षा

5.5 प्रारम्भिक शिक्षा की नई दिशा में दो बातों परविशेष बल दिया जाएगाऋ ;कद्ध 14 वर्ष की अवस्था तक के सब बच्चों की विद्यालयों में भर्ती और उनका विद्यालय में टिके रहना, और ;खद्ध शिक्षा की गुणवत्ता में कापफी सुधार।

बाल-केन्द्रित दृष्टिकोण

5.6 बच्चों को विद्यालय जाने में सबसे अधिक सहायता तब मिलती है जब वहाँ का वातावरण प्यार, अपनत्व और प्रोत्साहन से भरा हो और विद्यालय के सब लोग बच्चों की आवश्यकताओं पर ध्यान दे रहे हों। प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की पद्धति बाल-केन्द्रित और गतिविधि पर आधारित होनी चाहिए। 

पहली पीढ़ी के सीखने वाले बच्चों को अपनी गति से आगे बढ़ने देना चाहिए और उनके लिए पूरक और उपचारात्मक शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिए। ज्यों-ज्यों बच्चे बड़े होंगे उनके सीखने में ज्ञानात्मक तत्त्व बढ़ते जाएंगे और अभ्यासके द्वारा वे कुछ कुशलताएँ भी ग्रहण करते चलेंगे। प्राथमिकता स्तर पर बच्चों को किसी भी कक्षा में पफेल न करने की प्रथा जारी रखी जायेगी। 

बच्चों का मूल्यांकन वर्ष पर में पफैला दिया जाएगा। शिक्षा की व्यवस्था में से शारीरिक दंड को सर्वथा हटा दिया जाएगा और विद्यालय के समय का और छुट्टियों का निर्णय भी बच्चों की सुविधा को देखते हुये किया जायेगा।

विद्यालय में सुविधाएं

5.7 प्राथमिक विद्यालयों में आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था की जाएगी। इनमें किसी भी मौसम में काम देने लायक कम से कम दो बड़े कमरे, आवश्यक खिलौने, ब्लैकबोर्ड, नक्शे, चार्ट और अन्य शिक्षण सामग्री शामिल है। हर स्कूल में कम से कम दो शिक्षक होंगे, जिनमें एक महिला होगी। यथासंभव जल्दी ही प्रत्येक कक्षा के लिए एक-एक शिक्षक की व्यवस्था की जाएगी। 

पूरे देश में प्राथमिक विद्यालयों की दशा को सुधारने के लिए एक क्रमिक अभियान शुरू किया जाएगा जिसका सांकेतिक नाम ‘‘आपरेशन ब्लैक बोर्ड’’ होगा। इस कार्यमें शासन, स्थानीय निकाय, स्वयं सेवी संस्थाओं और व्यक्तियों की पूरी भागीदारी होगी। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम और ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम की निधियों का पहला उपयोग स्कूल की इमारतों के बनाने में होगा।

अनौपचारिक शिक्षा

5.8 ऐसे बच्चे जो बीच में स्कूल छोड़ गए हैं, या जोऐसे स्थानों पर रहते हैं जहाँ स्कूल नहीं है या जो काम में लगे हैं, और वे लड़कियां जो दिनके स्कूल में पूरे समय नहीं जा सकती, इन सबके लिए एक विशाल और व्यवस्थित अनौपचारिक शिक्षा का कार्यक्रम चलाया जाएगा।

5.9 अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों में सीखने की प्रक्रियाको सुधारने के लिए आधुनिक टैक्नालाजी के उपकरणों की सहायता ली जाएगी। इन केन्द्रों में अनुदेशक के तौर पर काम करने के लिए स्थानीय समुदाय के प्रतिभावान और निष्ठावान युवकों और युवतियों को चुना जाएगा और उनके प्रशिक्षण की विशेष व्यवस्था की जाएगी। 

अनौपचारिक धारा में शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे योग्यतानुसार औपचारिक धारा के विद्यालयों में प्रवेशपा सकेंगे। इस बात पर पूरा ध्यान दिया जाएगा कि अनौपचारिक शिक्षा का स्तर औपचारिक शिक्षा के समतुल्य हो।

5.10 ‘‘राष्ट्रीय केन्द्रिक शिक्षाक्रम’’ की तरह का एक शिक्षाक्रम अनौपचारिक शिक्षा पद्धति के लिये भी तैयार किया जाएगा, लेकिन यह शिक्षाक्रम विद्यार्थियों की जरूरतों पर आधारित होगा और इसका संबंध स्थानीय पर्यावरण से रहेगा। उच्चकोटि की शिक्षण सामग्री बनाई जाएगी और वह सभी विद्यार्थियों को मुफ्रत दी जाएगी। 

अनौपचारिक शिक्षा के कार्यक्रम में सहभागी होते हुए शिक्षा प्राप्त करने का वातावरण उपलब्ध किया जाएगा, और इसमें खेल-कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम, भ्रमण आदि की व्यवस्था की जाएगी।

5.11 अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को चलाने का अधिकतरकार्य स्वयंसेवी संस्थाएँ और पंचायती राज की संस्थाएँ करेंगी। इस कार्य के लिये इन संस्थाओं को पर्याप्त धन समय पर दिया जाएगा। इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र की कुल जिम्मेदारी सरकार पर रहेंगी।

एक संकल्प

5.12 नई शिक्षा नीति में स्कूल छोड़े जाने वाले बच्चों की समस्या के सुलझाने को उच्च प्राथमिकता दी जाएगी। बच्चों को बीच में स्कूल छोड़ने से रोकने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में इस समस्या का बारीकी से अध्ययन किया जाएगाऔर तद्नुसार प्रभावशाली उपाय खोज कर दृढ़ता के साथ उनका प्रयोग करने हेतु देशव्यापी योजना बनाई जाएगी। 

इस प्रयत्न का अनौपचारिक शिक्षा की व्यवस्था के साथ पूरा तालमेल होगा। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि 1990 तक जो बच्चे 11 के हो जाएंगे उन्हें विद्यालय में 5 वर्ष की शिक्षा,या अनौपचारिक धारा में इसकी समतुल्य शिक्षा, अवश्य मिल जाए। इसी प्रकार 1995 तक 14 वर्ष की अवस्था आने वाले सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अवश्य दी जाएगी।

माध्यमिक (सेकेण्डरी) शिक्षा

5.13 माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर विद्यार्थियों को विज्ञान, मानविकी और सामाजिक विज्ञानों की विशिष्ट भूमिकाओं का ज्ञान होने लगता है। इसी अवस्था पर बच्चों को इतिहासबोध और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य सही ढंग से दिया जा सकता है। साथ ही इस अवस्था पर अपने संवैधानिक दायित्व और नागरिकों के अधिकारों से भी उन्हें परिचित हो जानाचाहिए। 

अच्छे शिक्षाक्रम द्वारा उनमें चेतन रूप से कर्मशीलता के और करुणाशील सामाजिक संस्कृति के संस्कार डाले जाएंगे। इस स्तर पर विशेष संस्थाओं में व्यवसायों की शिक्षा के द्वारा और माध्यमिक शिक्षाकी पुनर्रचना के द्वारा देश के आर्थिक विकास के लिये मूल्यवान जनशक्ति जुटाई जा सकती है। जिन क्षेत्रों में अभी सैकण्डरी शिक्षा नहीं पहुचीं है वहाँ तक इसे पहुंचाकर अधिक सुलभ बनाया जाएगा। दूसरे क्षेत्रों में दृढ़ीकरण पर बल रहेगा।

गतिनिर्धारक विद्यालय

5.14 यह एक सर्वमान्य बात है कि जिन बच्चों में विशेष प्रतिभा या अभिरुचि हो, उन्हें अच्छी शिक्षा उपलब्ध करा कर अधिक तेजी से आगे बढ़ने केअवसर दिए जाने चाहिए। उनकी आर्थिक स्थिति जैसी भी हो उन को ऐसे अवसर मिलने चाहिए।

5.15 इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये देश के विभिन्न भागों में एक निर्धारित ढांचे पर गतिनिर्धारक विद्यालयों की स्थापना की जाएगी। इनमें नई-नई पद्धतियों को अपनाने और प्रयोग करने की छूट रहेगी। मोटे तौर पर इन विद्यालयों का उद्देश्य होगा कि वे समता और सामाजिक न्याय के साथ शिक्षा में उत्कृष्टता लाएँ। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये इन विद्यालयों में आरक्षण रहेगा। 

इन विद्यालयों में देश के विभिन्न भागों के, मुख्यतया ग्रामीण क्षेत्रों के, प्रतिभाशाली बच्चे एक साथ रहकर पढ़ेंगे जिससे उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास होगा। इन विद्यालयों में बच्चों को अपनी क्षमताओं के पूरे विकास का अवसर मिलेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि ये विद्यालय समूचे देश में विद्यालय सुधार के कार्यक्रम में उत्प्रेरक का काम करेंगे। ये विद्यालय आवासीय और निःशुल्क होंगे।

व्यावसायीकरण

5.16 शिक्षा के प्रस्तावित पुनर्गठन में व्यवस्थित और सुनियोजित व्यावसायिक शिक्षा के कार्यक्रम को दृढ़ता से क्रियान्वित करना बहुत ही जरूरी है।इससे व्यक्तियों के रोजगार पाने की क्षमता बढ़ेगी, आजकल कुशल कर्मचारियों की माँग और आपूर्ति में जो असंतुलन है वह समाप्त होगा और ऐसे विद्यार्थियों को एक वैकल्पिक मार्ग मिल सकेगा जो इस समय बिना किसी विशेष रुचि या उद्देश्य के उच्च शिक्षा की पढ़ाई किए जाते हैं।

5.17 व्यावसायिक शिक्षा अपने में शिक्षा की एक विशिष्टधारा होगी जिसका उद्देश्य कई क्षेत्रों के चुने हुए काम-धंधों के लिये विद्यार्थियों को तैयार करना होगा। ये कोर्स आम तौर पर सेकंडरी शिक्षा के बाद दिए जायेंगे लेकिन इस योजना को लचीला रखा जाएगा ताकि आठवीं कक्षा के बाद भी विद्यार्थी ऐसे कोर्स ले सकें। औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान भी बड़ी व्यावसायिक शिक्षा के ढांचे के अनुसार चलेंगे ताकि इनमें प्राप्त सुविधाओं का पूरा लाभ उठाया जा सके।

5.18 स्वास्थ्य नियोजन और स्वास्थ्य सेवा प्रबंध को उस क्षेत्र के लिये आवश्यक जनशक्ति प्रशिक्षण से जोड़ा जाना चाहिए। इसके लिये स्वास्थ्य संबंधी व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की आवश्यकता होगी। प्राथमिक और मध्य स्तर पर स्वास्थ्य की शिक्षा पाने से व्यक्ति परिवार और समाज के स्वास्थ्य के प्रति प्रतिबद्ध होगा। 

इससे उच्चतर माध्यमिक स्तर पर स्वास्थ्यसे संबंधित व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में विद्यार्थियों की रुचि बढ़ेगी। कृषि, विपणन, सामाजिक सेवाओं आदि के क्षेत्र में भी इसी प्रकार के पाठ्यक्रम तैयार किये जायेंगे। व्यावसायिक शिक्षा में ऐसी मनोवृत्तियों, ज्ञान और कुशलताओं पर बल रहेगा जिनसे उद्यमीपन और स्वरोजगार की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले।

5.19 व्यावसायिक पाठ्यचर्चाओं या संस्थाओं को स्थापित करने का दायित्व सरकार पर और सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के सेवा नियोजकों ;एम्पलायर्सद्धपर होगा, तो भी सरकार स्त्रियों, ग्रामीण और जनजातियों के विद्यार्थियों और समाज के वंचित वर्गों की आवश्यकता पूरी करने के लिये विशेष कदम उठाएगी। विकलांगों के लिये भी समुचित कार्यक्रम शुरू किये जायेंगे।

5.20 व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के स्नातकों को ऐसे अवसरदिये जायेंगे जिन के पफलस्वरूप वे पूर्व निर्धारित शर्तों के अनुसार व्यावसायिक विकास कर सकें, कैरियर में तरक्की पा सकें और सामान्य तकनीकी एवं उच्च स्तरीय व्यवसायों के कोर्सों में प्रवेश पा सकें।

5.21 नवसाक्षर लोगों, प्राथमिक शिक्षा पूरी किये हुएयुवाओं, स्कूल छोड़ जाने वालों और रोजगार में या आंशिक रोजगार में लगे हुए व्यक्तियों के लिये भी अनौपचारिक लचीले और आवश्यकता पर आधारित शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जायेंगे। इस संबंध में महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

5.22 उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों की अकादमिक धारा के स्नातक यदि चाहें तो उनके लिए उच्चस्तरीय व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का प्रबंध किया जाएगा।

5.23 यह प्रस्ताव है कि उच्चतर माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों का दस प्रतिशत 1990 तक और 25 प्रतिशत 1995 तक व्यावसायिक पाठ्यचर्या में आ जाए। इस बात के लिये कदम उठाए जाएंगे कि व्यावसायिक शिक्षा पाकर निकले हुए विद्यार्थियों मेंसे अधिकतर को या तो नौकरी मिले या वे अपना रोजगार स्वयं कर सकें। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का पुनरीक्षण नियमित रूप से किया जाएगा। माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रमों के वैविध्यकरण को बढ़ावा देने के लिये सरकार अपने अधीन की जाने वाली भर्ती की नीति पर भी पुनः विचार करेगी।

उच्च शिक्षा

5.24 उच्च शिक्षा से लोगों को इस बात का अवसर मिलता है कि वे मानव जाति की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में आई हुई समस्याओं पर विचार कर सकें। विशिष्ट ज्ञान और कुशलताओं के प्रसारण के द्वारा उच्च शिक्षा राष्ट्र के विकास में सहायक बनती है। 

इसलिये समाज के जीवन में उसकी निर्णायक भूमिका है, शैक्षिक पिरामिड में शीर्ष पर होने के नाते समूची शिक्षा व्यवस्था के लिये अध्यापक तैयार करने में भी इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है।

5.25 आजकल ज्ञान का जो अभूतपूर्व विस्पफोट हो रहा हैउसे देखते हुए उच्च शिक्षा को पहले से कहीं ज्यादा गतिशील होना है और नवीन अध्ययन-क्षेत्रों में निरन्तर कदम बढ़ाते रहना है।

5.26 आज भारत में करीब 150 विश्वविद्यालय और 5000 कॉलेज हैं। इन संस्थाओं में सभी प्रकार का सुधार लाने की दृष्टि से यह प्रस्ताव है कि निकट भविष्य में मुख्य बल विद्यमान संस्थाओं को दृढ़ करने और उनकी सुविधाओं के विस्तार पर हो।

5.27 उच्च शिक्षा-व्यवस्था को गिरावट से बचाने के लिए सभी संभव उपाय किये जाएंगे।

5.28 विश्वविद्यालयों से कालेजों के अनुबंधन ;एपिफलिएशनद्ध की प्रथा का अनुभव कहीं संतोषप्रद और कहीं असंतोषप्रद रहा है। इसलिए अनुबंधन को घटाकर बड़ी संख्या में कालेजों को स्वायत्तता देने पर बल दिया जाएगा। उद्देश्य यह है कि वर्तमान अनुबंधन की प्रथा के स्थान पर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के बीच एक स्वतंत्र और अधिक सृजनशील संबंध का जन्म हो। इसी तरह विश्वविद्यालयों के कुछ चुने हुये विभागों को भी स्वायत्तता देने को प्रोत्साहित किया जाएगा। स्वायत्तता और स्वतंत्रता के साथ जवाबदेही भी अवश्य ही रहेगी।

5.29 विशिष्टीकरण की मांग को बेहतर ढंग से पूरा करने के लिये पाठ्यक्रमों और कार्यक्रमों को नये सिरे से बनाया जायेगा। भाषिक क्षमता पर विशेष बल दिया जाएगा। विद्यार्थी कौन-कौन से कोर्स एक साथ ले सकते हैं, यह तय करने में अधिक लचीलापन रहेगा।

5.30 राज्य स्तर पर उच्च शिक्षा का नियोजन और उच्च शिक्षा संस्थाओं में समन्वय संपन्न करने हेतु शिक्षा परिषदें बनाई जाएंगी। शिक्षा के स्तर पर निगरानी रखने के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और ये परिषदें समन्वय पद्धतियाँ बनायेगी।

5.31 न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था की जाएगी और शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश उनकी ग्रहण-क्षमता के अनुसार किया जायेगा। शिक्षण विधियों को बदलने के प्रयास किये जाएंगे। दृश्य-श्रव्य साधनों और इलेक्ट्रानिक उपकरणों का प्रयोगप्रारम्भ होगा। 

विज्ञान भी टैक्नॉलाजी के शिक्षाक्रम और शिक्षण सामग्री के विकास पर और अनुसंधान एवं अध्यापक प्रशिक्षण पर ध्यान दिया जायेगा। इसके लिये अध्यापकों की सेवा-पूर्व तैयारी और बाद में उनकी सतत् शिक्षा आवश्यक होगी। अध्यापकों के कार्य का मूल्यांकन व्यवस्थित ढंग से किया जायेगा। सभी पद योग्यता के आधार पर भरे जायेंगे।

5.32 विश्वविद्यालयों में अनुसंधान के लिये अधिक सहायतादी जाएगी और उसकी उच्च गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिये कदम उठाये जायेंगे। विश्वविद्यालय में किये जा रहे अनुसंधान और अन्य संस्थाओं द्वारा किये जा रहे अनुसंधान के बीच, विशेषकर विज्ञान और टेक्नालाजी के अग्रवर्ती क्षेत्रों में, तालमेल बनाये रखने के लिये विश्वविद्यालयअनुदान आयोग के द्वारा उचित व्यवस्था की जायेगी। 

राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थाओं की सुविधाओं को विश्वविद्यालयीन प्रणाली के अंतर्गत स्थापित करने के प्रयास किये जाएंगे और इन संस्थाओं में स्वायत्त प्रबंध की समुचित व्यवस्था की जाएगी।

5.33 भारत विद्या, मानविकी और सामाजिक विज्ञानों में अनुसंधान के लिये पर्याप्त सहायता दी जाएगी। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में संश्लेषण लाने की दृष्टि से अंतरविषयी अनुसंधान को प्रोत्साहन दिया जायेगा। इस बात का भी प्रयत्न होगा कि भारत के प्राचीन ज्ञान के भण्डार में पैठा जाए और उसे समकालीन वस्तुस्थिति से जोड़ा जाए। इसके लिये संस्कृत और अन्य श्रेष्ठ भाषाओं के गहन अध्ययन का विकास करना जरूरी होगा।

5.34 नीति में अधिक समन्वय और सामंजस्य लाने के लिये,उपलब्ध सुविधाओं का सबके द्वारा उपयोग करने और अंतरविषयी अनुसंधान का विकास करने की दृष्टि के सामान्य कृषि, चिकित्सा, कानून और अन्य व्यावसायिक क्षेत्रों में उच्च शिक्षा केलिये एक राष्ट्रीय निकाय स्थापित किया जाएगा। खुला विश्वविद्यालय और दूरस्थ अध्ययन

5.35 उच्च शिक्षा के लिये अधिक अवसर देने और शिक्षा को जनतांत्रिक बनाने की दृष्टि से खुले विश्वविद्यालय की प्रणाली शुरू की गई है।

5.36 इन उद्देश्यों के लिये 1985 में स्थापित ‘‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय खुला विश्वविद्यालय’’ को सुदृढ़ किया जायेगा।

5.37 इस प्रबल साधन का विकास एवं विस्तार सावधानी से और सोच समझकर करना होगा।

5.38 कुछ चुने हुये क्षेत्रों में डिग्री को नौकरी सेअलग करने के लिये कदम उठाये जाएंगे।

5.39 विशिष्ट व्यावसायिक क्षेत्रों, जैसे इंजीनियरी, चिकित्सा, कानून, शिक्षण आदि में इस प्रस्ताव को लागू नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार मानविकी, सामाजिक विज्ञान और विज्ञान आदि में, जहाँ विशेषज्ञों की सेवाओं की आवश्यकता होती है, अकादमिक अर्हताओं की आवश्यकता बनी रहेगी।

5.40 डिग्री को नौकरी से अलग करने की योजना उन सेवाओं में शुरू की जाएगी जिनमें विश्वविद्यालय की डिग्री आवश्यक नहीं होनी चाहिए। इस योजना को लागू करने से विशेष कार्यों, अपेक्षित कुशलताओं पर आधारित नये पाठ्यक्रम बनने लगेंगे और इससे उन प्रत्याशियों के साथ अधिक न्याय हो सकेगा जिनके पास किसी विशेष काम को करने की क्षमता तो है लेकिन उन्हें वह काम इसलिये नहीं मिल सकता क्योंकि उसके लिये स्नातक प्रत्याशियों को अनावश्यक रूप से तरज़ीह दी जाती है।

5.41 नौकरियों को डिग्री से अलग करने के साथ-साथ क्रमिक रूप में एक राष्ट्रीय परीक्षण सेवा प्रारंभ की जाएगी। इसके द्वारा स्वैच्छिक रूप से विशिष्ट कामों के लिये प्रत्याशियों की उपयुत्तफता की जांच की जाएगी और इससे देश भर में समतुल्य योग्यताओं के मानक स्थापित हो सकेंगे।

ग्रामीण विश्वविद्यालय

5.42 ग्रामीण विश्वविद्यालय के नये ढांचे को सुदृढ़ किया जाएगा और इसे महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी क्रांतिकारी विचारों के अनुरूप विकसित किया जाएगा। इसका उद्देश्य होगा कि ग्रामीण क्षेत्र के उन्नयन के लिये सूक्ष्म रूप से आयोजन प्रक्रिया ग्राम स्तरपर चलाने की दृष्टि से योग्य शिक्षा दी जाए। महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा से सम्बद्ध संस्थाओं और कार्यक्रमों को सहायता दी जाएगी।

भाग 6

तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा

6.1 यद्यपि तकनीकी शिक्षा और प्रबंध शिक्षा अलग धाराओं के रूप में चल रही है। तथापि उनके आपसी घनिष्ठ संबंध और पूरक उद्देश्यों को ध्यानमें रखते हुए दोनों पर इकट्ठा विचार करना आवश्यक है। तकनीकी और प्रबंध शिक्षा का पुनर्गठन करतेसमय नई शताब्दी के आरंभ में जिस प्रकार की परिस्थिति की संभावना है, उसे ध्यान में रखना होगा। 

अर्थव्यवस्था, सामाजिक वातावरण, उत्पादन और प्रबंधकीय प्रक्रियाओं में संभावित परिवर्तन, ज्ञान में तेजी से होते पफैलाव, तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में होने वाली प्रगति को इस संदर्भ में देखना होगा।

6.2 अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढाँचे और सेवा क्षेत्रों के साथ-साथ असंगठित ग्रामीण क्षेत्रों को भी उन्नत टेक्नॉलाजी को और तकनीकी और प्रबंधकीय जनशक्ति की बेहद जरूरत है। सरकार द्वारा इस ओर ध्यान दिया जायेगा।

6.3 जनशक्ति सूचना के संबंध में स्थिति को सुधारने के उद्देश्य से हाल ही में स्थापित तकनीकी जनशक्ति सूचना प्रणाली को आगे विकसित तथा सुदृढ़ किया जायेगा।

6.4 वर्तमान तथा उभरती प्रौद्योगिकी दोनों में सतत्शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जायेगा।

6.5 क्योंकि संगणक ;कम्प्यूटरद्ध महत्त्वपूर्ण और सर्वव्यापक साधन बन गया है, अतः संगणक के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी और उनके प्रयोग में प्रशिक्षण व्यावसायिक शिक्षा का अंग बनाया जायेगा। संगणक-साक्षरता ;कम्प्यूटर लिटरेसीद्ध के कार्यक्रम स्कूल स्तर से ही बड़े पैमाने पर आयोजित किए जाएंगे।

6.6 औपचारिक पाठ्यक्रमों में दाखिले की वर्तमान कड़ीशर्तों के कारण साधारण लोगों में अधिकांश को आज तकनीकी तथा प्रबंधकीय शिक्षा नहीं मिलती। ऐसे लोगों के लिये दूर शिक्षण सुविधायें जिनमें जनसंचार माध्यम का उपयोग भी शामिलहै, प्रदान की जायेंगी। 

तकनीकी तथा प्रबंध शिक्षा कार्यक्रम, पालिटेक्निक शिक्षा सहित, लचीली माड्यूलर पद्धति के अनुसार चलेंगे और इसमें विभिन्न स्तरों पर प्रवेश की सुविधा होगी। इसके लियेपर्याप्त मार्गदर्शन और परामर्श सेवा भी उपलब्ध कराई जायेगी।

6.7 प्रबंध शिक्षा की प्रासंगिकता को, विशेष रूप से गैर-नियमित तथा कम व्यवस्थित क्षेत्रों में, बढ़ाने के उद्देश्य से प्रबंध शिक्षा प्रणाली द्वारा भारतीय अनुभव एवं अध्ययन पर आधारित दस्तावेजी जानकारी तैयार की जायेगी और ऊपर बताये गये क्षेत्रोंके लिये उपयुक्त ज्ञान एवं शिक्षा कार्यक्रमों का भंडार तैयार किया जायेगा।

6.8 महिलाओं, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों एवं विकलांगों के लाभ के लिये तकनीकी शिक्षा के लिये समुचित औपचारिक तथा अनौपचारिक कार्यक्रम तैयार किये जायेंगे।

6.9 व्यावसायिक शिक्षा और उसके विस्तार पर बल देने केलिये व्यावसायिक शिक्षा, शैक्षिक प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम विकास आदि के लिये अनेकशिक्षकों और प्रोपफेशनल्स की आवश्यकता होगी। इस मांग को पूरा करने के लिये कार्यक्रम शुरू किए जायेंगे।

6.10 यह आवश्यक है कि ‘‘स्वयं रोजगार’’ को छात्रगण जीविका-विकल्प के रूप में स्वीकार करें। इसके लिये उन्हें उद्यम-विषयक ;आन्त्रप्रिन्योरशिपद्ध प्रशिक्षण दिया जायेगा जिसकी अव्यस्था डिग्री तथा डिप्लोमा स्तर पर माड्यूलर तथा वैकल्पिक कोर्सोंद्वारा की जायेगी।

6.11 पाठ्यक्रम की अद्यतन बनाने की सतत् आवश्यकताओं कोपूरा करने के लिये नवीकरण द्वारा नई प्रौद्योगिकियों और विषयों को शुरू करना होगा तथा पुराने और अर्थहीन होते विषयों को क्रमशः हटाना होगा।

संस्थागत झुकाव की दिशा 6.12 ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ पालिटेक्निकों ने सामुदायिक पालिटेक्निकों की प्रणाली के माध्यम से कमजोर वर्गों को उत्पादक व्यवसायों में प्रशिक्षणदेना शुरू किया है। सामुदायिक पालिटेक्निक प्रणाली का मूल्यांकन किया जायेगा और उसे समुचित रूप से मजबूत बनाया जायेगा ताकि इसकी गुणवत्ता और प्रसार को बढ़ाया जा सके।

नवाचार, शोध और विकास

6.13 शिक्षा की प्रक्रियाओं के नवीकरण के साधनों के रूप में सभी उच्च तकनीकी संस्थान शोध कार्य में पूरी तत्परता से जुट जायेंगी। इनका पहला मकसद होगा उच्च कोटि की जनशक्ति उपलब्ध कराना, जो शोध और विकास में उपयोगी साबित हो सके। 

विकास के लिये शोध कार्य, मौजूदा प्रौद्योगिकी में सुधार, नई देशज प्रौद्योगिकी की खोज तथा उत्पादन की जरूरतों को पूरा करने से संबंधित होगा। प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तनों पर नजररखने और नये आविष्कारों का अनुमान लगाने के लिये भी उपयुक्त व्यवस्था की जायेंगी।

6.14 इस क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर कार्य करने वाली संस्थाओं और उनका उपयोग करने वाली प्रणालियों के बीच सहयोग, सहकार्य और आदान-प्रदान के रिश्ते कायम करने के अवसरों का पूरा लाभ उठाया जायेगा। उपयुक्त रख-रखाव तथा रोजमर्रा के जीवन में नये-नये प्रयोग करने और उन्हें सुधारने की मनोवृत्ति को व्यवस्थित ढंग से विकसित किया जायेगा। सभी स्तरों पर दक्षता और प्रभावकारिता बढ़ाना

6.15 तकनीकी और प्रबंध शिक्षा खर्चीली होती है। लागत के हिसाब से इसको कारगर बनाने और उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिये निम्नलिखित मुख्य उपाय किये जायंगे-

  • आधुनिकीकरण को उच्च प्राथमिकता दी जायेगी और पुरानापन हटाया जायेगा। आधुनिकीकरण को महज पफैशन के तौर पर या प्रतिष्ठा चिर्िं के रूप में नहीं बल्कि कार्यात्मक दक्षता बढ़ाने के लिये अपनाया जायेगा।
  • जो संस्थाएँ समाज को और उद्योगों को अपनी सेवाएंदेने की क्षमता रखती है, उन्हें ऐसे अवसर देकर अपने लिये संसाधन जुटाने के लिये प्रोत्साहित किया जायेगा। उन्हें अद्यतन शिक्षण संसाधनों, पुस्तकालयों और कम्प्यूटर सुविधाओं से सज्जित किया जायेगा।
  • पर्याप्त छात्रावास व्यवस्था, विशेषतः लड़कियों के लिये, की जाएगी। खेल-कूद, रचनात्मक कार्य और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिये सुविधाएँ बढ़ाई जायेंगी।
  • प्रशिक्षकों की भर्ती में ज्यादा प्रभावशाली प्रक्रियाओं का प्रयोग किया जायेगा। वृत्तिका विकास के अवसरों, सेवा शर्तों, कन्सलटेंसी के मानदंडों, तथा अन्य सुविधाओं को सुधारा जायेगा।
  • शिक्षकों को बहुमुखी भूमिकाएँ निभानी होंगी, यथा शिक्षण, अनुसंधान, शिक्षण सामग्री तैयार करना तथा संस्था के प्रबंध में हाथ बढ़ाना। संकाय सदस्यों के लिये सेवापूर्व और सेवाकालीन प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिये जाएंगे और पर्याप्त प्रशिक्षण रिजर्व उपलब्ध किये जायेंगे। स्टापफ विकास कार्यक्रम राज्य स्तर पर समेकित, तथा क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर समन्वित किये जायेंगे।
  • तकनीकी और प्रबंध कार्यक्रमों की पाठ्यचर्या का लक्ष्य यह होगा कि उद्योगों तथा उनका उपयोग करने वालों की वर्तमान और भावी आवश्यकताएँ पूरी हो सकें। तकनीकी अथवा प्रबंध संस्थानों और उद्योगों के बीच सक्रिय कार्यसंबंध स्थापित करने का प्रयास किया जायेगा। यह संबंध कार्यक्रम-नियोजन में, कार्यान्वयन में,कर्मचारियों के विनिमय में, प्रशिक्षण-सुविधाओं और संसाधनों में, अनुसंधान और कन्सलटेन्सी ;सलाहकारीद्ध में, और पारस्परिक लाभ के अन्य क्षेत्रों में स्थापित कियाजायेगा।
  • संस्थाओं और व्यक्तियों के उत्कृष्ट कार्य की मान्यता दी जायेगी और पुरस्कृत किया जाएगा। घटिया स्तर की संस्थाओं का उभरना रोका जाएगा। प्रशिक्षक संकाय के पूर्ण सहयोग से एक ऐसा संस्थागत माहौल तैयार किया जायेगाजिसमें उत्कृष्टता और नव-प्रयास को पनपने का अवसर प्राप्त हो सके।
  • चुनिन्दा संस्थाओं को शैक्षिक, प्रशासनिक और वित्तीय स्वतन्त्रता विभिन्न सीमाओं तक दी जायेगी, लेकिन साथ ही जिम्मेदारी के समुचित निर्वाहके लिये जवाबदेही की व्यवस्था भी की जायेगी।
  • तकनीकी शिक्षा का संबंध उपयोग, अनुसंधान और विकास संगठनों से, ग्रामीण और सामुदायिक विकास कार्यक्रमों से तथा पूरक स्वरूप वाले अन्य शिक्षा-क्षेत्रों से स्थापित किया जायेगा।

प्रबंध कार्यकलाप और परिवर्तन

6.16 प्रबन्ध पद्धतियों में संभावित परिवर्तनों की, और इन परिवर्तनों के साथ कदम मिलाकर चलने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, परिवर्तन प्रक्रिया के स्वरूप और दिशा को समझने की कारगर पद्धतियां तैयार की जायेंगी। परिवर्तन को पचाने की दक्षता को विकास किया जायेगा।

6.17 अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् को विधिक प्राधिकार प्रदान किया जायेगा। परिषद् इस प्राधिकार के द्वारा तकनीकी शिक्षा का नियोजन करेगी, स्तरों और मानदंडों का निर्धारण और अनुरक्षण, प्रत्यापन, प्राथमिकता-प्राप्त क्षेत्रों के लिये वित्तीय व्यवस्था, अनुश्रवण और मूल्यांकन, प्रमाणन एवं पुरस्कारों की समकक्षता का निर्वहन, तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा के बीच समन्वय- ये सब कार्य सम्पन्न करेगी। समुचित रूप से गठित एक मान्यताप्राप्त बोर्डनिश्चित अवधियों पर अनिवार्य रूप से तकनीकी शिक्षा की प्रक्रिया का मूल्यांकन करेगा।

6.18 शिक्षा प्रमाणों को बनाये रखने तथा अन्य अनेकअनुकूल कारणों को ध्यान में रखकर तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के व्यापारीकरण को रोका जायेगा। इसके विकल्प के रूप में स्वीकृत मानदंडों और सामाजिक लक्ष्यों के अनुरूप इन क्षेत्रों में निजी और स्वैच्छिक प्रयासों को शामिल करने की एक नई पद्धति तैयार की जायेगी।

भाग 7

शिक्षा व्यवस्था को कारगर बनाना

7.1 यह स्पष्ट है कि शिक्षा से संबंधित ये तथा अन्य बहुत से नये कार्य अव्यवस्था की दिशा में नहीं किये जा सकते। शिक्षा का प्रबंध चरम बौद्धिक अनुशासन और गंभीर सोद्देश्यता की मांग करता है। अवश्य ही इसके साथ वह स्वतंत्रता भी होनी चाहिये जिसमें नये प्रयोगों और सृजनशीलता को पूरा अवसर मिले। 

शिक्षा की गुणवत्ता में और उसके विस्तार के संबंध में तो दूरगामी परिवर्तन करने ही होंगे, किन्तु जो कुछ आज की स्थिति है, उसी में अनुशासन स्थापित करने की प्रक्रिया का प्रारंभ तुरंत ही करना होगा।

7.2 देश ने शिक्षा-व्यवस्था में असीम विश्वास रखा है और लोगों को यह अधिकार है कि वे इस व्यवस्था से ठोस परिणामों की आशा करें। सबसे पहला काम तो इस तंत्र को सक्रिय बनाना है। यह आवश्यक है कि सभी अध्यापक पढ़ाएं और सभी विद्यार्थी पढ़ें।

7.3 इसके लिए निम्नलिखित युक्तियाँ अपनाई जायेंगी।

  • (क) अध्यापकों को अधिक सुविधाएँ और साथ ही उनकी अधिक जवाबदेही।
  • (ख) विद्यार्थियों के लिये सेवा में सुधार और साथ ही उनके सही आचरण पर बल।
  • (ग) शिक्षा-संस्थाओं को अधिक सुविधाएँ दिया जाना।
  • (घ) राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर तय किये गये मानदंड केआधार पर शिक्षा-संस्थाओं के कार्य के मूल्यांकन की पद्धति का सृजन।

भाग 8

शिक्षा की विषय-वस्तु और प्रक्रिया को नया मोड़ देना

सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य

8.1 इस समय शिक्षा की औपचारिक पद्धति और देश की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक परंपराओं के बीच एक खाई है, जिसे पाटना आवश्यक है। आधुनिक टेक्नॉलाजी की धुन में यह नहीं होना चाहिए कि नई पीढ़ी भारतीय इतिहास और संस्कृतिके मूल में ही कट जाये। संस्कृतिविहीनता-अमानवीयता और विलगाव ;एलिएनेशनद्ध के भाव से हर कीमत पर बचना होगा। परिवर्तनपरक टेक्नॉलाजी और सतत् चली आ रही देश की सांस्कृतिक परंपरा में एक सुन्दर समन्वय की आवश्यकता है और शिक्षा इसे बखूबी कर सकती है।

8.2 शिक्षा की पाठ्यचर्या और प्रक्रियाओं को सांस्कृतिक विषयवस्तु के समावेश द्वारा अधिक से अधिक रूपों में समृद्ध किया जाएगा। इस बात का प्रयत्न होगा कि सौन्दर्य, सामंजस्य और परिष्कार के प्रति बच्चों की संवेदनशीलता बढ़े। 

सांस्कृतिक परंपरा में निष्णात व्यक्तियों को, उनके पास औपचारिक शैक्षिक उपाधि के न होने पर भी, शिक्षा में सांस्कृतिक तत्त्वों का योगदान करने के लिए आमंत्रित किया जाएगा। इस काम में लिखित और मौखिकदोनों परंपराएं शामिल होंगी। सांस्कृतिक परंपरा को कायम रखने और आगे बढ़ाने के लिए परम्परागत तरीकों से पढ़ाने वाले गुरुओं और उस्तादों की सहायता की जाएगी और उनके कार्य को मान्यता दी जाएगी।

8.3 विश्वविद्यालय प्रणाली के और कला, पुरातत्व, प्राच्य अध्ययन आदि की उच्च संस्थाओं के बीच संपर्क कायम किया जाएगा। ललित कलाओं, संग्रहालय-विज्ञान, लोक साहित्य आदि विशिष्ट विषयों पर उचित ध्यान दिया जाएगा। इन क्षेत्रों में शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान की अधिक व्यवस्था की जाएगी ताकि उनके लिए आवश्यक विशेष योग्यता प्राप्तव्यक्तियों की कमी को पूरा किया जाता रहे।

मूल्यों की शिक्षा

8.4 इस बात पर गहरी चिन्ता प्रकट की जा रही है कि जीवन के लिए आवश्यक मूल्यों का ह्रास हो रहा है और मूल्यों पर से ही लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। शिक्षाक्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है जिससे सामाजिक और नैतिक मूल्यों के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके।

8.5 हमारा समाज सांस्कृतिक रूप से बहु-आयामी है, इसलिएशिक्षा के द्वारा उन सार्वजनीन और शाश्वत मूल्यों का विकास होना चाहिए जो हमारे लोगों को एकता की ओर ले जा सकें। इन मूल्यों से धार्मिक अंधविश्वास, कट्टरता, असहिष्णुता, हिंसा और भाग्यवाद का अन्त करने में सहायता मिलनी चाहिए।

8.6 इस संघर्षात्मक भूमिका के साथ-साथ मूल्य-शिक्षा का एक गंभीर सकारात्मक पहलू भी है जिसका आधार हमारी सांस्कृतिक विरासत, राष्ट्रीय लक्ष्य और सार्वभौम दृष्टि है, जिस पर मुख्य तौर से बल दिया जाना चाहिए।

भाषाएँ

8.7 1968 की शिक्षा नीति में भाषाओं के विकास के प्रश्न पर विस्तृत रूप से विचार किया गया था। उस नीति की मूल सिपफारिशों में सुधार की संभावना शायद ही हो और वे जितनी प्रासंगिक पहले थीं उतनी ही आज भी हैं। किन्तु देश भर में 1968 की नीति का पालन एक समान नहीं हुआ। अब इस नीति की अधिक सक्रियता और सोद्देश्यता से लागू किया जाएगा।

पुस्तकें और पुस्तकालय

8.8 जन शिक्षा के लिए कम कीमत पर पुस्तकों का उपलब्ध होना बहुत ही जरूरी है। समाज के सभी वर्गों को आसानी से पुस्तकें उपलब्ध कराने केप्रयास किए जाएंगे। साथ ही पुस्तकों की गुणात्मकता को सुधारने, पढ़ने की आदत का विकास करनेऔर सृजनात्मक लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाये जाएंगे। लेखकों के हितों की रक्षाकी जाएगी। 

विदेशी पुस्तकों के भारतीय भाषाओं में अच्छे अनुवादों को सहायता दी जायेगी। बच्चों के लिए अच्छी पुस्तकों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इनमें पाठ्य पुस्तकें और अभ्यास पुस्तकें भी सम्मिलित होंगी।

8.9 पुस्तकों के विकास के साथ-साथ मौजूदा पुस्तकालयों के सुधार के लिए और नए पुस्तकालयों की स्थापना के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियानचलाया जायेगा। प्रत्येक शैक्षिक संस्था में पुस्तकालय की सुविधा के लिए प्रावधान किया जाएगा और पुस्तकालाध्यक्षों के स्तर को सुधारा जाएगा। संचार माध्यम और शैक्षिक प्रौद्योगिकी

8.10 आधुनिक संचार-प्रौद्योगिकी से यह संभव हो गया है कि पहले की दशाब्दियों में शिक्षा की जिन अवस्थाओं और क्रमों से गुजरना पड़ता था उनमें से अधिकांश को लांघकर आगे बढ़ा जाए। इस टेक्नालॉजी से देश और काल के बंधनों पर काबू पा सकना संभव हो गया है। हमारा समाज दो खंडों में बँटा न रहे, इसके लिए आवश्यक है कि शैक्षिक प्रौद्योगिकी संपन्न वर्गों के साथ-साथ उन क्षेत्रों में पहुंचे जो इस समय अधिक से अधिक अभावग्रस्त हैं।

8.11 शैक्षिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग उपयोगी जानकारी के लिए, अध्यापकों के प्रशिक्षण और पुनःप्रशिक्षण के लिए, शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए, और कला और संस्कृति के प्रति जागरूकता और स्थाई मूल्यों के संस्कार उत्पन्न करने केलिए किया जाएगा। 

औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की शिक्षा में इस टेक्नॉलाजी का प्रयोग होगा। मौजूदा व्यवस्थाओं (इन्फ्रास्ट्राक्चर) का अधिक से अधिक लाभ उठाया जाएगा। जिनगांवों में बिजली नहीं है वहां प्रोग्राम चलाने के लिए बैटरी अथवा सौर ऊर्जा पैक से काम लिया जाएगा।

8.12 शैक्षिक टेक्नॉलोजी के द्वारा मुख्य रूप से ऐसे कार्यक्रमों का निर्माण होगा जो प्रासंगिक हों और सांस्कृतिक रूप से संगत हों। इस उद्देश्य के लिएदेश में विद्यमान सभी संसाधनों का उपयोग किया जाएगा।

8.13 संचार माध्यमों का प्रभाव बच्चों और बड़ों केमन पर बहुत गहरा पड़ता है। आजकल इन संचार माध्यमों के कुछ प्रोग्राम अति उपभोग की संस्कृति और हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते प्रतीत होते हैं और उनका प्रभाव हानिकारक है। 

रेडियो और दूरदर्शन के ऐसे कार्यक्रमों को बंद किया जाएगा जो शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधक बन सकते हों। पिफल्मों और अन्य संचार माध्यमों में भी इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए कदम उठाए जाएंगे। बच्चों के लिए उच्च कोटि के और उपयोगी पिफल्मों के निर्माण के लिए सक्रिय अभियान चलाया जाएगा।

कार्यानुभव

8.14 कार्यानुभव को, सभी स्तरों पर दी जाने वाली शिक्षा का एक आवश्यक अंग होना चाहिए। कार्यानुभव एक ऐसा उद्देश्यपूर्ण और सार्थक शारीरिक काम है जो सीखने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है जिससे समाज को वस्तुएँ या सेवाएँ मिलती हैं। यह अनुभव एक सुसंगठित और क्रमबद्ध कार्यक्रम के द्वारा दिया जाना चाहिए। 

कार्यानुभव की गतिविधियाँ विद्यार्थियों की रूचियों, योग्यताओं और आवश्यकताओं पर आधारित होंगी। शिक्षा के स्तर के साथ ही कुशलताओं और ज्ञान के स्तर में वृद्धि होती जाएगी। इसके द्वारा प्राप्त किया गया अनुभव आगे चलकर रोजगार पाने मेंं बहुत सहायक होगा। माध्यमिक स्तर पर दिए जाने वाले पूर्व-व्यावसायिक कार्यक्रमों से उच्चतर माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के चुनाव में सहायता मिलेगी।

शिक्षा और पर्यावरण

8.15 पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करने की बहुत जरूरत है और यह जागरूकता बच्चों से लेकर समाज के सभी आयुवर्गों और क्षेत्रों में पफैलनी चाहिए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता विद्यालयों और कॉलेजों की शिक्षा का अंग होनी चाहिए। इसे शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में समाहित किया जाएगा।

गणित-शिक्षण

8.16 गणित को एक ऐसा साधन माना जाना चाहिए जो बच्चों को सोचने, तर्क करने, विश्लेषित करने और अपनी बात को तर्कसंगत ढंग से प्रकट करने में समर्थ बना सकता है। एक विशिष्ट विषय होने के अतिरिक्त गणित को ऐसे किसी भी विषय का सहवर्ती माना जाना चाहिए जिसमें विश्लेषण और तर्कशक्ति की जरूरत होती है।

8.17 अब विद्यालयों में भी कम्प्यूटरों का प्रवेश होने लगा है। इससे शैक्षिक कम्प्यूटरी का मौका मिलेगा। कार्यकारण संबंध की ओर चरों की पारस्परिक क्रिया को समझने और सीखने की प्रक्रिया को नई दिशा मिलेगी। गणित शिक्षण को इस प्रकार सेपुनर्गठित किया जाएगा कि वह आधुनिक टेक्नॉलाजी के उपकरणों के साथ जुड़ सके।

विज्ञान शिक्षा

8.18 विज्ञान शिक्षा को सुदृढ़ किया जाएगा ताकि बच्चोंमें जिज्ञासा की भावना, सृजनात्मकता, वस्तुगतता, प्रश्न करने का साहस और सौंदर्यबोध जैसी योग्यताएं और मूल्य विकसित हो सकें।

8.19 विज्ञान शिक्षा के कार्यक्रमों को इस प्रकार बनाया जाएगा कि उनसे विद्यार्थियों में समस्याओं को सुलझाने और निर्णय करने की योग्यताएँउत्पन्न हो सकें और वे स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग तथा जीवन के अन्य पहलुओं के साथ विज्ञान के सम्बन्ध को समझ सकें। जो लोग अब तक औपचारिक शिक्षा के दायरे के बाहर रहे हैं उन तक विज्ञान की शिक्षा को पहुंचाने का हर सम्भव प्रयास किया जाएगा।

खेल और शारीरिक शिक्षा

8.20 खेल और शारीरिक शिक्षा सीखने की प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं और इन्हें विद्यार्थियों की कार्यसिद्धि के मूल्यांकन में शामिल किया जाएगा। शारीरिक शिक्षा और खेल-कूद की राष्ट्रव्यापी अधोरचना ;इन्Úास्ट्रक्चरद्ध को शिक्षा व्यवस्था का अंग बनाया जाएगा।

8.21 इस अधोरचना के तहत खेल के मैदानों और उपकरणों की व्यवस्था की जाएगी। शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों की नियुक्ति होगी। शहरों में उपलब्ध खुले क्षेत्र खेलों के मैदान के लिए आरक्षित किए जाएंगे और यदि आवश्यक हुआ तो इसके लिए वैधानिक कार्यवाई की जाएगी। ऐसा खेल संस्थाएँ और छात्रावास स्थापित किए जाएंगे जहाँ आम शिक्षा के साथ-साथ खेलों की गतिविधियों और उनसे संबद्ध अध्ययन पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। 

खेलकूदमें प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को उपयुक्त प्रोत्साहन दिया जाएगा। भारत के पारम्परिक खेलों पर उचित बल दिया जाएगा। शरीर और मन के समेकित विकास के साधन के रूप में योग शिक्षा पर विशेष बल दिया जाएगा। सभी विद्यालयों में योग की शिक्षा की व्यवस्था के लिए प्रयास किए जाएंगे और इस दृष्टि से शिक्षक-प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में योग की शिक्षा भी सम्मिलित की जाएगी।

युवावर्ग की भूमिका

8.22 शैक्षिक संस्थाओं के माध्यम से और उनके बाहर भी युवाओं को राष्ट्रीय और सामाजिक विकास के कार्य में सम्मिलित होने के अवसर दिए जाएंगे।इस समय राष्ट्रीय सेवा योजना, राष्ट्रीय कैडेट कोर आदि जो योजनाएँ चल रही हैं उनमें से किसी एक में भाग लेना विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य होगा। संस्थाओं के बाहर भी युवाओं को विकास, सुधार और विस्तार के कार्य शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। राष्ट्रीय सेवाकर्मी योजना को सुदृढ़ किया जाएगा।

मूल्यांकन प्रक्रिया और परीक्षा में सुधार

8.23 विद्यार्थियों के कार्य का मूल्यांकन सीखने और सिखाने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। एक अच्छी शैक्षिक नीति के अंग के रूप में शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए परीक्षाओं का उपयोग होना चाहिए।

8.24 परीक्षा में इस प्रकार सुधार किया किया जाएगा जिससे कि मूल्यांकन की एक वैध और विश्वसनीय प्रक्रिया उभर सके और वह सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में एक सशक्त साधन के रूप में काम कर सके। क्रियात्मक रूप में इसका अर्थ होगा।

  • अत्यधिक संयोग ;चान्सद्ध और आत्मगतता ;सब्जैक्टिविटीद्ध केअंश को समाप्त करना।
  • रटाई पर जोर को हटाना।
  • ऐसी सतत् और सम्पूर्ण मूल्यांकन प्रक्रिया का विकास करना जिसमें शिक्षा के शास्त्रीय और शास्त्रेत्तर पहलू समाविष्ट हो जाएँ और जो शिक्षण की पूरी अवधि में व्याप्त रहें।
  • अध्यापकों, विद्यार्थियों और माता-पिता के द्वारा मूल्यांकन की प्रक्रिया का प्रभावी उपयोग।
  • परीक्षाओं के आयोजन में सुधार।
  • परीक्षा में सुधार के साथ-साथ शिक्षण सामग्री और शिक्षण-विधि में भी सुधार।
  • माध्यमिक स्तर से क्रमबद्ध रूप में सत्र-प्रणाली का प्रारम्भ।
  • अंकों के स्थान पर ‘‘ग्रेड’’ का प्रयोग।

8.25 ये उद्देश्य बाह्य परीक्षाओं और शिक्षा-संस्थाओंके अन्दर के मूल्यांकन दोनों के लिए प्रासंगिक हैं। संस्थागत मूल्यांकन की प्रणाली को सरल बनाया जाएगा और बाहरी परीक्षाओं की प्रचुरता को कम किया जाएगा।

भाग 9

शिक्षक

9.1 किसी समाज में अध्यापकों के दर्जे से उसकी सांस्कृतिक-सामाजिक दृष्टि का पता लगता है। कहा गया है कि कोई भी राष्ट्र अपने अध्यापकों केस्तर से ऊपर नहीं उठ सकता। सरकार और समाज को ऐसी परिस्थितियाँ बनानी चाहिए जिनसे अध्यापकों को निर्माण और सृजन ओर बढ़ने की प्रेरणा मिले। अध्यापकों को इस बात की आजादी होनी चाहिए कि वे नये प्रयोग कर सकें और संप्रेषण की उपयुक्त विधियाँ और अपने समुदाय की समस्याओं और क्षमताओं के अनुरूप नये उपाय निकाल सकें।

9.2 अध्यापकों को भर्ती करने की प्रणाली में इस प्रकार परिवर्तन किया जाएगा कि उनका चयन उनकी योग्यता के आधार पर व्यक्ति-निरपेक्ष रूप से और उनके कार्य की अपेक्षाओं के अनुरूप हो सके। शिक्षकों का वेतन और सेवा की शर्तें उनकेसामाजिक और व्यावसायिक दायित्व के अनुरूप हों और ऐसी हों जिनसे प्रतिभाशाली व्यक्ति शिक्षक-व्यवसाय की ओर आकृष्ट हों। 

यह प्रयत्न किया जाएगा कि पूरे देश में वेतन में, सेवा शर्तों में और शिकायतें दूर करने की व्यवस्था में समानता का वांछनीय उद्देश्य प्राप्त किया जा सके। अध्यापकों की तैनाती और तबादले में व्यक्ति-निरपेक्षता लाने के लिए निर्देशक सिद्धान्त बनाए जाएंगे। उनके मूल्यांकन की एक पद्धति तय की जाएगी जो प्रकट होगी, आंकड़ों एवं तथ्यों पर आधारित होगी और जिसमें सबका योगदान होगा। 

ऊपर के ग्रेड में तरक्की के लिए शिक्षकों को उचित अवसर दिए जाएंगे। जवाबदेही केमानक तय किए जाएंगे। अच्छे कार्य को प्रोत्साहित और निष्क्रियता को निरूत्साहित किया जाएगा। शैक्षिक कार्यक्रमों के बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने में अध्यापकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी रहेगी।

9.3 व्यावसायिक प्रामाणिकता की हिमायत करने, शिक्षक कीप्रतिष्ठा को बढ़ाने और व्यावसायिक दुर्व्यवहार को रोकने में शिक्षक-संघों को अहम् भूमिका निभानी चाहिए। शिक्षकों के राष्ट्रीय संघ शिक्षकों के लिए एक व्यावसायिक आचार-संहिता बनासकते हैं और उसका अनुपालन करा सकते हैं।

अध्यापकों की शिक्षा

9.4 अध्यापकों की शिक्षा एक सतत् प्रक्रिया है और इसकेसेवापूर्व और सेवाकालीन अंशों को अलग नहीं किया जा सकता। पहले कदम के रूप में अध्यापकों की शिक्षा की प्रणाली को आमूल बदला जाएगा।

9.5 अध्यापकों की शिक्षा के नये कार्यक्रम में सतत् शिक्षा पर और इस शिक्षा-नीति में नई दिशाओं के अनुसार आगे बढ़ने की आवश्यकता पर बल होगा।

9.6 ‘जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान’ स्थापित किए जाएंगे जिनमें प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों की और अनौपचारिक शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा के कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था होगी। इन संस्थानों की स्थापना के साथ बहुत सी घटिया प्रशिक्षण संस्थाओं को बन्द किया जाएगा। 

कुछ चुने हुए माध्यमिक अध्यापक-प्रशिक्षण कॉलेजों का दर्जाबढ़ाया जाएगा ताकि वे राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थानों के पूरक के रूप में काम कर सकें। राष्ट्रीय अध्यापक-शिक्षा परिषद् को सामर्थ्य और साधन दिए जाएंगे जिससे यह परिषद् अध्यापक-शिक्षा की संस्थाओं को मान्यता देने के लिए अधिकारिक हो और उनके शिक्षाक्रम और पद्धतियों के बारे में मार्गदर्शन कर सके। अध्यापक शिक्षा की संस्थाओं और विश्वविद्यालयों के शिक्षा-विभागों में आपस में मिलकर काम करने की व्यवस्था की जाएगी।

भाग 10

शिक्षा का प्रबंध

10.1 शिक्षा की आयोजना और प्रबन्ध की व्यवस्था के पुनर्गठन को उच्च प्राथमिकता दी जायेगी। इस सम्बन्ध में जिन सिद्धांतों को ध्यान में रखा जायेगा वे निम्नलिखित हैं-

  • (क) शिक्षा की आयोजना और प्रबन्ध का दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य तैयार करना और उसे देश की विकासात्मक और जनशक्ति विषयक आवश्यकताओं से जोड़ना।
  • (ख) विकेन्द्रीकरण तथा शिक्षा संस्थाओं में स्वायत्तता की भावना उत्पन्न करना।
  • (ग) लोक-भागीदारी को प्रधानता देना, जिसमें गैर-सरकारी एजेंसियों का जुड़ाव तथा स्वैच्छिक प्रयास शामिल हैं।
  • (घ) शिक्षा की आयोजना और प्रबन्ध में अधिकाधिक संख्या में महिलाओं को शामिल करना।
  • (ङ) प्रदत्त उद्देश्यों और मानदण्डों के सम्बन्ध में जवाबदेही के सिद्धान्त की स्थापना।

राष्ट्रीय स्तर

10.2 केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड शैक्षिक विकास का पुनरावलोकन करेगा, शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए आवश्यक परिवर्तनों को सुनिश्चित करेगा और कार्यान्वयन सम्बन्धी देखरेख में निर्णायक भूमिका अदा करेगा। बोर्ड उपयुक्त समितियों के माध्यम से एवं मानव संसाधन विकास के विभिन्न क्षेत्रों के बीच संपर्क तथा समन्वयन के लिए बनाए गए प्रक्रमों के माध्यम से कार्य करेगा। केन्द्र तथा राज्यों के शिक्षा विभागों को सुदृढ़ बनाने के लिए इनमें व्यावसायिक दक्षता रखने वाले व्यक्तियों को लाया जाएगा।

भारतीय शिक्षा सेवा

10.3 शिक्षा के प्रबंध में उपयुक्त ढांचे के निर्माण केलिए तथा इसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में लाने के लिए यह आवश्यक होगा कि भारतीय शिक्षा सेवा का एकअखिल भारतीय सेवा के रूप में गठन किया जाये। इस सेवा से सम्बन्धित बुनियादी सिद्धान्तों, कर्त्तव्यो, तथा नियोजन की विधि की बाबत निर्णय राज्य सरकारों के परामर्श से किया जायेगा।

राज्य स्तर

10.4 राज्य सरकारें केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की तरह के राज्य शिक्षा सलाहकार बोर्ड स्थापित करेंगीं। मानव संसाधन विकास के संबंधित राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों के समाकलन के लिए कारगर उपाय किए जाने चाहिए।

10.5 शैक्षिक आयोजकों, प्रशासकों और संस्थाध्यक्षों के प्रशिक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस प्रयोजन के लिए उचित चरणों में संस्थागत प्रबन्ध किए जाने चाहिए।

जिला तथा स्थानीय स्तर

10.6 उच्चतर माध्यमिक स्तर तक शिक्षा का प्रबंध करने के लिए जिला शिक्षा बोर्डों की स्थापना की जाएगी तथा राज्य सरकारें यथाशीघ्र इस संबंध में कार्रवाई करेंगी। शैक्षिक विकास के विभिन्न स्तरों पर आयोजना, समन्वयन, मानिटरिंग तथा मूल्यांकन में केन्द्रीय, राज्य, जिला तथा स्थानीय स्तर की एजेंसियां सहभागिता निभायेंगी।

10.7 शिक्षा व्यवस्था में संस्थाध्यक्षों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। उनके चयन तथा प्रशिक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जायेगा। लचीला रवैया अपनाते हुए विद्यालय संगमों ;स्कूल काम्पलेक्सेजद्ध को विकसित किया जायेगा ताकि वे शिक्षा संस्थाओं के आपसी तानेबाने ;नेटवर्कद्ध का माध्यम बनें, तथा शिक्षकों की व्यावसायिक दक्षता बढ़ाने और उनके द्वारा कर्त्तव्यनिष्ठा के मानदण्डों के पालन में सहायक हों। साथ ही विद्यालय संगमों के द्वारा, संबधित संस्थाओं के लिए अनुभवों का आपसी आदान-प्रदान करना, तथा एक दूसरे की सुविधाओं में साझेदारी का रिश्ता बनाना संभव होना चाहिए। यह अपेक्षा की जा सकती है कि विद्यालय संगमों की व्यवस्था के बनने के साथ वे निरीक्षण कार्य का ज्यादातर जिम्मा संभाल लेंगें।

10.8 उपयुक्त निकायों के माध्यम से स्थानीय लोग विद्यालय सुधार कार्यक्रमों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

स्वैच्छिक एजेन्सियाँ तथा सहायता प्राप्त संस्थाएँ

10.9 गैर-सरकारी तथा स्वैच्छिक प्रयासों को, जिनमें समाजसेवी सक्रिय समुदाय भी शामिल हैं, प्रोत्साहन दिया जाएगा और वित्तीय सहायता भी मुहÕया करवाई जाएगी बशर्तें कि उनकी प्रबंध व्यवस्था ठीक हो। इसके साथ ही ऐसी संस्थाओं को रोका जाएगा जो शिक्षा को व्यापारिक रूप दे रही हैं।

भाग 11

संसाधन तथा समीक्षा

11.1 शिक्षा आयोग (1964-66), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) और शिक्षा से संबंधित अन्य सभी लोगों ने इस बात पर बल दिया है कि हमारे समतावादी उद्देश्यों और व्यावहारिक तथा विकासोन्मुख लक्ष्यों को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कि इस कार्य के स्वरूप और आयामों के अनुरूप शिक्षा में पूँजी निवेश हो।

11.2 जिस हद तक सम्भव होगा, इन विभिन्न तरीकों से साधन जुटाए जाएंगे-चंदा इकट्ठा करना, इमारतों का रख-रखाव तथा रोजमर्रा काम में आने वाली वस्तुओं की पूर्ति में स्थानीय लोगों की मदद लेना, उच्च शिक्षा स्तर पर पफीस बढ़ाना तथा उपलब्ध साधनों का बेहतर उपयोग करना। वे संस्थाएँ जो अनुसंधान में या वैज्ञानिक जनशक्ति के विकास के क्षेत्र में काम कर रही हैं, अपने काम का उपयोग करने वाली एजेंसियों पर उपकर या प्रभार लगा कर कुछ साधन जुटा सकती हैं। इन एजेंसियों में सरकार और उद्योगों को शामिल किया जा सकता है। 

ये सभी उपाय न केवल राज्य संसाधनों पर बोझ को कम करने के लिये किये जाएंगे, अपितु शैक्षिक प्रणाली मेंजनता के प्रति जवाबदेही की व्यापक भावना को पैदा करने के लिए भी कारगर होंगे। तथापि, साधनों की समूची वित्तीय आवश्यकता के मुकाबले में इन उपायों से थोड़े ही अंश में योगदान हो पाएगा। 

वास्तव में सरकार तथा देशवासियों को ही मिलकर इस प्रकार के कार्यक्रमों के लिये वित्तीय साधन जुटाने होंगे, यथा प्रारम्भिक शिक्षा का सार्वजनीकरण, निरक्षरता निवारण, देश भर में सभी वर्गों के लिये समान शैक्षिक अवसर प्रदान करना, शिक्षा की सामाजिक दृष्टि से प्रासंगिकता बढ़ाना, शैक्षिक कार्यक्रमों की गुणवत्ता और कार्यात्मकता में वृद्धि करना, ज्ञान तथा वैज्ञानिक क्षेत्रों में स्वयं-स्पफूर्त आर्थिक विकास के लिए प्रौद्योगिकी का विकास, राष्ट्रीय अस्मिता बनाए रखने के लिये अनिवार्य माने गये मूल्यों के प्रति चेतन जागरूकता पैदा करना।

11.3 शिक्षा में आवश्यक पूँजी न लगाने या अपर्याप्त मात्रा में लगाने के हानिकारक परिणाम वास्तव में बहुत गम्भीर हैं। इसी तरह, व्यावसायिक तथा तकनीकी शिक्षा और अनुसंधान की उपेक्षा से होने वाली हानि अस्वीकार्य होगी। इन क्षेत्रों में पूरी तरह संतोषप्रद स्तर के कार्य का निष्पादन न होने से हमारे देश की अर्थव्यवस्था को अपरिहार्य क्षति होगी। 

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग को सुचारू बनाने के लिये स्वतन्त्रता से अब तक समय-समय पर गठित संस्थाओं के नेटवर्क को पर्याप्त मात्रा में और तत्परता से आधुनिक बनाने की जरूरत होगी क्योंकि ये संस्थाएँ बड़ी तेजी से पुरानी पड़ती जा रही हैं।

11.4 इन अनिवार्यताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षाको राष्ट्रीय विकास और पुनरूत्थान के लिये पूँजी लगाने का एक अत्यंत आवश्यक क्षेत्र माना जाएगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में यह निर्धारित किया गया था कि शिक्षा पर होने वाले निवेश को धीरे-धीरे बढ़ाया जाए ताकि वह यथाशीघ्र राष्ट्रीय आय के 6 प्रतिशत तक पहुंच सके। 

चूंकि तब से अब तक शिक्षा पर लगी पूँजी का स्तर उस लक्ष्य से कापफी कम रहा है, अतः यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि अब इस नीति में निर्धारित कार्यक्रमों की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अधिक दृढ़संकल्प दर्शाया जाए। यद्यपि समय-समय पर विभिन्न कार्यक्रमों की प्रगति के जायजे के आधार पर वास्तविक आवश्यकताओं का अनुमान लगाया जाएगा, पर इस नीति के कार्यान्वयन में पूँजी निवेश जिसहद तक जरूरी होगा, उस हद तक सातवीं पंचवर्षीय योजना में ही बढ़ाया जाएगा। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि आठवीं पंचवर्षीय योजना से शुरू करके यह वह राष्ट्रीय आय के 6 प्रतिशत से सर्वदा अधिक हो।

समीक्षा

11.5 नई शिक्षा नीति के विभिन्न पहलुओं के कार्यान्वयन की समीक्षा प्रत्येक पांच वर्षों में अवश्य ही की जाएगी। कार्यान्वयन की प्रगति और समय-समय पर उभरती हुई प्रवृत्तियों की जांच करने के लिये मध्यावधि मूल्यांकन भी होंगे।

भाग 12

भविष्य

12.1 भारत में शिक्षा का भावी स्वरूप इतना जटिल है किउसके बारे में स्पष्ट रूपरेखा बना सकना सम्भव नहीं है। पिफर भी, हमारी उन परम्पराओं को देखते हुये कि जिन्होंने हमेशा बौद्धिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों को महत्त्व दिया है, इसमें किसी तरह का शक नहीं कि हम अपने उद्देश्यों को हासिल करने में कामयाब होंगे।

12.2 सबसे बड़ा काम है शैक्षिक पिरामिड की बुनियाद को सुदृढ़ बनानाऋ उस बुनियाद को जिसमें इस शताब्दी के अन्त तक लगभग सौ करोड़ लोग होंगे। यह सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि जो इस पिरामिड के शिखर पर हों, वे विश्व की सर्वोत्तम स्तर के हों। 

अतीत में इन दोनों छोरों को हमारी संस्कृति के मूल-स्रोतों नेभली-भांति सिंचित रखा, लेकिन विदेशी आधिपत्य और प्रभाव के कारण इस प्रक्रिया में विकार पैदा हो गया। अब मानव संसाधन विकास का एक राष्ट्रव्यापी प्रयास पुनश्च शुरू होना चाहिये, जिसमें शिक्षा अपनी बहुमुखी भूमिका पूर्ण रूप से निभाए।

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