इस पोस्ट में भाषा (Language) क्या होती है भाषा की परिभाषा, प्रकार, उद्देश्य, उपयोग, प्रकृति , भाषा के विभिन्न रूप, लिपि, हिंदी भाषा, और बोली आदि संबंधित समस्त प्रकार के प्रश्नों को शामिल किया है और विधिवत समझाने का प्रयास किया है। आशा करते हैं कि यहां आपके समस्त प्रकार के प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।
विषयसूची (toc)
भाषा (Language) की परिभाषा
भाषा (Language) की परिभाषा - भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करता है।
दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है।
सरल शब्दों में- सामान्यतः भाषा मनुष्य की सार्थक व्यक्त वाणी को कहते है।
डॉ शयामसुन्दरदास के अनुसार - मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुअों के विषय अपनी इच्छा और मति का आदान प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतो का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है।
डॉ बाबुराम सक्सेना के अनुसार- जिन ध्वनि-चिंहों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-बिनिमय करता है उसको समष्टि रूप से भाषा कहते है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते है-
(1) भाषा में ध्वनि-संकेतों का परम्परागत और रूढ़ प्रयोग होता है।
(2) भाषा के सार्थक ध्वनि-संकेतों से मन की बातों या विचारों का विनिमय होता है।
(3) भाषा के ध्वनि-संकेत किसी समाज या वर्ग के आन्तरिक और ब्राह्य कार्यों के संचालन या विचार-विनिमय में सहायक होते हैं।
(4) हर वर्ग या समाज के ध्वनि-संकेत अपने होते हैं, दूसरों से भित्र होते हैं।
भाषा शब्द संस्कृत के भाष धातु से बना है। जिसका अर्थ है- बोलना। कक्षा में अध्यापक अपनी बात बोलकर समझाते हैं और छात्र सुनकर उनकी बात समझते हैं। बच्चा माता-पिता से बोलकर अपने मन के भाव प्रकट करता है और वे उसकी बात सुनकर समझते हैं। इसी प्रकार, छात्र भी अध्यापक द्वारा समझाई गई बात को लिखकर प्रकट करते हैं और अध्यापक उसे पढ़कर मूल्यांकन करते हैं। सभी प्राणियों द्वारा मन के भावों का आदान-प्रदान करने के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है। पशु-पक्षियों की बोलियों को भाषा नहीं कहा जाता।
इसके द्वारा मनुष्य के भावो, विचारो और भावनाओ को व्यक्त किया जाता है। वैसे भी भाषा की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है। फिर भी भाषावैज्ञानिकों ने इसकी अनेक परिभाषा दी है। किन्तु ये परिभाषा पूर्ण नही है। हर में कुछ न कुछ त्रुटि पायी जाती है।
आचार्य देवनार्थ शर्मा ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार बनायी है। उच्चरित ध्वनि संकेतो की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अथवा जिसकी सहायता से मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय या सहयोग करते है उस यादृच्छिक, रूढ़ ध्वनि संकेत की प्रणाली को भाषा कहते है।
यहाँ तीन बातें विचारणीय है- (1) भाषा ध्वनि संकेत है; (2) वह यादृच्छिक है; (3) वह रूढ़ है।
(1) सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते है। यह संकेत स्पष्ट होना चाहिए। मनुष्य के जटिल मनोभावों को भाषा व्यक्त करती है; किन्तु केवल संकेत भाषा नहीं है। रेलगाड़ी का गार्ड हरी झण्डी दिखाकर यह भाव व्यक्त करता है कि गाड़ी अब खुलनेवाली है; किन्तु भाषा में इस प्रकार के संकेत का महत्त्व नहीं है। सभी संकेतों को सभी लोग ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते और न इनसे विचार ही सही-सही व्यक्त हो पाते हैं। सारांश यह है कि भाषा को सार्थक और स्पष्ट होना चाहिए।
(2) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यहाँ शब्द और अर्थ में कोई तर्क-संगत सम्बन्ध नहीं रहता। बिल्ली, कौआ, घोड़ा, आदि को क्यों पुकारा जाता है, यह बताना कठिन है। इनकी ध्वनियों को समाज ने स्वीकार कर लिया है। इसके पीछे कोई तर्क नहीं है।
(3) भाषा के ध्वनि-संकेत रूढ़ होते हैं। परम्परा या युगों से इनके प्रयोग होते आये हैं। औरत, बालक, वृक्ष आदि शब्दों का प्रयोग लोग अनन्तकाल से करते आ रहे है। बच्चे, जवान, बूढ़े- सभी इनका प्रयोग करते है। क्यों करते है, इसका कोई कारण नहीं है। ये प्रयोग तर्कहीन हैं।
भाषा व्यक्त करने के चाहे जो भी तरीके हों, हम किसी-न-किसी शब्द, शब्द-समूहों या भावों की ओर ही इशारा करते हैं जिनसे सामनेवाले अवगत होता है। इसलिए भाषा में हम केवल सार्थक शब्दों की बातें करते हैं। इन शब्दों या शब्द-समूहों (वाक्यों) द्वारा हम अपनी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, प्रसन्नता या खिन्नता, प्रेम या घृणा, क्रोध अथवा संतोष प्रकट करते हैं। हम शब्दों का प्रयोग कर बड़े-बड़े काम कर जाते हैं या मूर्खतापूर्ण प्रयोग कर बने-बनाए काम को बिगाड़ बैठते हैं।
हम इसके प्रयोग कर किसी क्रोधी के क्रोध का शमन कर जाते हैं तो किसी शांत-गंभीर व्यक्ति को उत्तेजित कर बैठते हैं। किसी को प्रोत्साहित तो किसी को हतोत्साहित भी हम शब्द-प्रयोग से ही करते हैं। कहने का यह तात्पर्य है कि हम भाषा के द्वारा बहुत सारे कार्यो को करते हैं। हमारी सफलता या असफलता (अभिव्यक्ति के अर्थ में) हमारी भाषायी क्षमता पर निर्भर करती है।
भाषा से हमारी योग्यता-अयोग्यता सिद्ध होती है। जहाँ अच्छी और सुललित भाषा हमें सम्मान दिलाती है वहीं अशुद्ध और फूहड़ भाषा हमें अपमानित कर जाती है (समाज में) । स्पष्ट है कि भाषा ही मनुष्य की वास्तविक योग्यता, विद्वत्ता और बुद्धिमता, उसके अनुशीलन, मनन और विचारों की गंभीरता उसके गूढ़ उद्देश्य तथा उसके स्वभाव, सामाजिक स्थिति का परिचय देती है।
कोई अपमानित होना नहीं चाहता। अतएव, हमें सदैव सुन्दर और प्रभावकारिणी भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारा प्रयत्न निरंतर जारी रहे।
भाषा में पैठ एवं अच्छी जानकारी के लिए हमें निम्नलिखित बातों पर हमेशा ध्यान देना चाहिए-
(i) हम छोटी-छोटी भूलों पर सूक्ष्म दृष्टि रखें और उसे दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहें। चाहे जहाँ कहीं भी हों अपनी भाषायी सीमा का विस्तार करें। दूसरों की भाषा पर भी ध्यान दें।
(ii) खासकर बच्चों की भाषा पर विशेष ध्यान दें। यदि हम उनकी भाषा को शुरू से ही व्यवस्थित रूप देने में सफल होते हैं तो निश्चित रूप से उसका (भाषा का) वातावरण तैयार होगा।
(iii) सदा अच्छी व ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों का अध्ययन करें। उन पुस्तकों में लिखे नये शब्दों के अर्थों एवं प्रयोगों को सीखें। लिखने एवं बोलने की शैली सीखें।
(iv) वाक्य-प्रयोग करते समय इस छोटी-सी बात का हमेशा ध्यान रखें-
हर संज्ञा के लिए एक उपयुक्त विशेषण एवं प्रत्येक क्रिया के लिए सटीक क्रिया-विशेषण का प्रयोग हो।
(v) विराम-चिह्नों का प्रयोग उपयुक्त जगहों पर हो। लिखते और बोलते समय भी इस बात का ध्यान रहे।
(vi) मुहावरे, लोकोक्तियों, बिम्बों आदि का प्रयोग करना सीखें और आस-पास के लोगों को सिखाएँ।
(vii) जिस भाषा में हम अधिक जानकारी बढ़ाना चाहते हैं, हमें उसके व्यावहारिक व्याकरण का ज्ञान होना आवश्यक है।
हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भाषा परिवर्तनशील होती है। किसी भाषा में नित नये शब्दों, वाक्यों का आगमन होते रहता है और पुराने शब्द टूटते, मिटते रहते हैं। किसी शब्द या वाक्य को पकड़े रहना कि यह ऐसा ही प्रयोग होता आया है और आगे भी ऐसा ही रहेगा या यही रहेगा- कहना भूल है। आज विश्व में कुल 2,796 भाषाएँ और 400 लिपियाँ मान्यता प्राप्त हैं। एक ही साथ इतनी भाषाएँ और लिपियाँ नहीं आई। इनका जन्म विकास के क्रम में हुआ, टूटने-फूटने से हुआ।
हम जानते हैं कि हर भाषा का अपना प्रभाव हुआ करता है। हर आदमी की अपने-अपने हिसाब से भाषा पर पकड़ होती है और उसी के अनुसार वह एक-दूसरे पर प्रभाव डालता है। जब पारस्परिक सम्पर्क के कारण एक जाति की भाषा का दूसरी जाति की भाषा पर असर पड़ता है, तब निश्चित रूप से शब्दों का आदान-प्रदान भी होता है। यही कारण है कि कोई भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह पाती और उससे अनेक शाखाएँ विभिन्न परिस्थितियों के कारण फूटती रहती हैं तथा अपना विस्तारकर अलग-अलग समृद्व भाषा का रूप ले लेती हैं। इस बात को हम एक सरल उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझने का प्रयास करें-
कल्पना कीजिए कि किसी कारण से अलग-अलग चार भाषाओं के लोग कुछ दिन तक एक साथ रहे। वे अपनी-अपनी भाषाओं में एक-दूसरे से बातें करते-सुनते रहे। चारों ने एक दूसरे की भाषा के शब्द ग्रहण किए और अपने-अपने साथ लेते गए। अब प्रश्न उठता है कि चारों में से किसी की भाषा अपने मूल रूप में रह पायी ? इसी तरह यदि दो-चार पीढ़ियों तक उन चारों के परिवारों का एक-साथ उठना-बैठना हो तो निश्चित रूप से विचार-विनिमय के लिए एक अलग ही किस्म की भाषा जन्म ले लेगी, जिसमें चारों भाषाओं के शब्दों और वाक्यों का प्रयोग होगा। उस नई भाषा में उक्त चारों भाषाओं के सरल और सहज उच्चरित होनेवाले शब्द ही प्रयुक्त होंगे वे भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार और सरलतम रूपों में; क्योंकि जब कोई एक भाषाभाषी दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करता है तो वह सरल से सरलतम शब्दों का चयन करके भी उसे अपने अनुसार सहज बना लेता है। निम्नलिखित उदाहरणों से इसका अंदाजा लगाएँ-
मूल शब्द : विकास के क्रम में बने सरल से सरलतम रूप (विभिन्न भाषाओं में)
बाह्य : बाह > बाहर
मध्यम : मुझ
सप्तत्रिंशत : सैंतीस
मनस्कामना : मनोकामना
दक्षिण : दखिन > दाहिन > दहिन > दाहिना
परीक्षा : परिखा > परख
अग्नि : अग्नि > आग
कुमार (संस्कृत) : कुँवर
जायगाह (फारसी) : जगह
लीचू (चीनी) : लीची
ओपियम (यूनानी) : अफीम
लैन्टर्न (अंग्रेजी) : लालटेन
बेयरिंग (अंग्रेजी) : बैरंग
कैंडल (अंग्रेजी) : कंदिल > कंडिल
किसी भाषा के दो मुख्य आधार हुआ करते हैं-
(i) मानसिक आधार (Psychical Aspect) और(ii) भौतिक आधार (Physical Aspect)
मानसिक आधार से आशय है, वे विचार या भाव, जिनकी अभिव्यक्ति के लिए वक्ता भाषा का प्रयोग करता है और भौतिक आधार के जरिए श्रोता ग्रहण करता है। इसके सहारे भाषा में प्रयुक्त ध्वनियाँ (वर्ण, अनुतान, स्वराघात आदि) और इनसे निकलनेवाले विचारों या भावों को ग्रहण किया जाता है। जैसे- 'फूल' शब्द का प्रयोग करनेवाला भी इसके अर्थ से अवगत होगा और जिसके सामने प्रयोग किया जा रहा (सुननेवाला) वह भी। यानी भौतिक आधार अभिव्यक्ति का साधन है और मानसिक आधार साध्य। दोनों के मिलने से ही भाषा का निर्माण होता है। इन्हें ही 'ब्राह्य भाषा' (Outer Speech) और आन्तरिक भाषा (Inner Speech) कहा जाता है।
भाषा समाज-द्वारा अर्जित सम्पत्ति है और उसका अर्जन मानव अनुकरण के सहारे समाज से करता है। यह अनुकरण यदि ठीक-ठाक हो तो मानव किसी शब्द को ठीक उसी प्रकार उच्चरित करेगा, परन्तु ऐसा होता नहीं है। वाक्य, अर्थ आदि का अनुकरण मानसिक रूप में समझकर किया जाता हैं। अनुकरण करने में प्रायः अनुकर्त्ता कुछ भाषिक तथ्यों को छोड़ देता है और कुछ को जोड़ लेता है। जब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी, भाषा का अनुकरण कर रही होती है, तब ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य, अर्थ- भाषा के पाँचों क्षेत्रों में इसे छोड़ने और जोड़ने के कारण परिवर्तन बड़ी तेजी से होता है। इस अनुकरण की अपूर्णनता के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं-
शारीरिक विभिन्नता, एकाग्रता की कमी, शैक्षिक स्तरों में अंतर का होना, उच्चारण में कठिनाई होना, भौतिक वातावरण, सांस्कृतिक प्रभाव, सामाजिक प्रभाव आदि।
उपर्युक्त प्रभावों के कारण अनुकरणात्मक विविधता के कुछ उदाहरण देखें-
तृष्णा > तिसना/टिसना | शिक्षा > सिच्छा |
षड्यंत्र > खडयंत्र | रिपोर्ट > रपट |
राजेन्द्र > रजिन्दर/राजेन्दर | ट्रैजेडी > त्रासदी |
अंदाज > अंजाद | लखनऊ > नखलऊ |
परीक्षा > परिच्छा | क्षत्रिय > छत्री |
स्टेशन > इस्टेशन/टिशन | स्कूल > ईसकूल |
मास्टर > मसटर/महटर | प्राण > परान |
मतलब > मतबल |
प्रत्येक देश की अपनी एक भाषा होती है। हमारी राष्टभाषा हिंदी है। संसार में अनेक भाषाए है। जैसे- हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बँगला, गुजराती, उर्दू, तेलगु, कन्नड़, चीनी, जमर्न आदि।
हिंदी के कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा के निम्नलिखित लक्षण दिए है।
अनुकरण की यह प्रवृत्ति या भाषा का यह रूप भूगोल पर आधारित है। एक भाषा-क्षेत्र में कई बोलियाँ हुआ करती हैं और इसी तरह एक बोली-क्षेत्र में कई उपबोलियाँ। बोली के लिए विभाषा, उपभाषा अथवा प्रांतीय भाषा का भी प्रयोग किया जाता है। बोली का क्षेत्र छोटा और भाषा का बड़ा होता है। यों तो प्रकृति की दृष्टि से भाषा और बोली में अन्तर कर पाना मुश्किल है फिर भी यहाँ कुछ सामान्य अन्तर दिए जा रहे हैं-''बोली किसी भाषा के एक ऐसे सीमित क्षेत्रीय रूप को कहते हैं जो ध्वनि, रूप, वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरे आदि की दृष्टि से उस भाषा के परिनिष्ठित तथा अन्य क्षेत्रीय रूपों से भिन्न होता है; किन्तु इतना भिन्न नहीं कि अन्य रूपों के बोलनेवाले उसे समझ न सकें, साथ ही जिसके अपने क्षेत्र में कहीं भी बोलनेवालों के उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरों आदि में कोई बहुत स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण भिन्नता नहीं होती।''
भाषा का क्षेत्र व्यापक हुआ करता है। इसे सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक, व्यापारिक आदि मान्यताएँ प्राप्त होती हैं; जबकि बोली को मात्र सामाजिक मान्यता ही मिल पाती है। भाषा का अपना गठित व्याकरण हुआ करता है; परन्तु बोली का कोई व्याकरण नहीं होता। हाँ, बोली ही भाषा को नये-नये बिम्ब, प्रतीकात्मक शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि समर्पित करती है। जब कोई बोली विकास करते-करते उक्त सभी मान्यताएँ प्राप्त कर लेती है, तब वह बोली न रहकर भाषा का रूप धारण कर लेती है। जैसे- खड़ी बोली हिन्दी जो पहले (द्विवेदी-युग से पूर्व) मात्र प्रांतीय भाषा या बोली मात्र थी वह आज भाषा ही नहीं राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी है।
एक बोली जब मानक भाषा बनती है और प्रतिनिधि हो जाती है तो आस-पास की बोलियों पर उसका भारी प्रभाव पड़ता है। आज की खड़ी बोली ने ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथली, मगही आदि सभी को प्रभावित किया है। हाँ, यह भी देखा जाता है कि कभी-कभी मानक भाषा कुछ बोलियों को बिल्कुल समाप्त भी कर देती है। एक बात और है, मानक भाषा पर स्थानीय बोलियों का प्रभाव ही देखा जाता है।
एक उदाहरण द्वारा इसे आसानी से समझा जा सकता है-
बिहार राज्य के बेगूसराय, खगड़िया, समस्तीपुर आदि जिलों में प्रायः ऐसा बोला जाता है-
हम कैह देंगे। हम नै करेंगे आदि।
भोजपुर क्षेत्र में : हमें लौक रहा है (दिखाई पड़ रहा है)। हम काम किये (हमने का) किया)
पंजाब प्रान्त का असर : हमने जाना है (हमको जाना है)
दिल्ली-आगरा क्षेत्र में : वह कहवे था/ मैं जाऊँ। मेरे को जाना है।
कानपुर आदि क्षेत्रों में : वह गया हैगा।एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ हो सकती हैं, जबकि एक बोली में कई भाषाएँ नहीं होतीं। बोली बोलनेवाले भी अपने क्षेत्र के लोगों से तो बोली में बातें करते हैं; किन्तु बाहरी लोगों से भाषा का ही प्रयोग करते हैं।
ग्रियर्सन के अनुसार भारत में 6 भाषा-परिवार, 179 भाषाएँ और 544 बोलियाँ हैं-
(क) भारोपीय परिवार : उत्तरी भारत में बोली जानेवाली भाषाएँ।
(ख) द्रविड़ परिवार : तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम।
(ग) आस्ट्रिक परिवार : संताली, मुंडारी, हो, सवेरा, खड़िया, कोर्क, भूमिज, गदवा, पलौंक, वा, खासी, मोनख्मे, निकोबारी।
(घ) तिब्बती-चीनी : लुशेइ, मेइथेइ, मारो, मिश्मी, अबोर-मिरी, अक।
(ड़) अवर्गीकृत : बुरूशास्की, अंडमानी
(च) करेन तथा मन : बर्मा की भाषा (जो अब स्वतंत्र है)
भाषा के प्रकार
भाषा के तीन रूप होते है-(1)मौखिक भाषा
(2)लिखित भाषा
(3)सांकेतिक भाषा।
(1) मौखिक भाषा
मौखिक भाषा :-विद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। प्रतियोगिता में वक्ताओं ने बोलकर अपने विचार प्रकट किए तथा श्रोताओं ने सुनकर उनका आनंद उठाया। यह भाषा का मौखिक रूप है। इसमें वक्ता बोलकर अपनी बात कहता है व श्रोता सुनकर उसकी बात समझता है।इस प्रकार, भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति बोलकर विचार प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति सुनकर उसे समझता है, मौखिक भाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- जिस ध्वनि का उच्चारण करके या बोलकर हम अपनी बात दुसरो को समझाते है, उसे मौखिक भाषा कहते है।
उदाहरण: टेलीफ़ोन, दूरदर्शन, भाषण, वार्तालाप, नाटक, रेडियो आदि।
मौखिक या उच्चरित भाषा, भाषा का बोल-चाल का रूप है। उच्चरित भाषा का इतिहास तो मनुष्य के जन्म के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य ने जब से इस धरती पर जन्म लिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा। इसलिए यह कहा जाता है कि भाषा मूलतः मौखिक है।
यह भाषा का प्राचीनतम रूप है। मनुष्य ने पहले बोलना सीखा। इस रूप का प्रयोग व्यापक स्तर पर होता है।
मौखिक भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) यह भाषा का अस्थायी रूप है।(2) उच्चरित होने के साथ ही यह समाप्त हो जाती है।
(3) वक्ता और श्रोता एक-दूसरे के आमने-सामने हों प्रायः तभी मौखिक भाषा का प्रयोग किया जा सकता है।
(4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'ध्वनि' है। विभिन्न ध्वनियों के संयोग से शब्द बनते हैं जिनका प्रयोग वाक्य में तथा विभिन्न वाक्यों का प्रयोग वार्तालाप में किया जाता हैं।
(5) यह भाषा का मूल या प्रधान रूप हैं।
(2) लिखित भाषा
इस प्रकार भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति अपने विचार या मन के भाव लिखकर प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति पढ़कर उसकी बात समझता है, लिखित भाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- जिन अक्षरों या चिन्हों की सहायता से हम अपने मन के विचारो को लिखकर प्रकट करते है, उसे लिखित भाषा कहते है।
उदाहरण:पत्र, लेख, पत्रिका, समाचार-पत्र, कहानी, जीवनी, संस्मरण, तार आदि।
उच्चरित भाषा की तुलना में लिखित भाषा का रूप बाद का है। मनुष्य को जब यह अनुभव हुआ होगा कि वह अपने मन की बात दूर बैठे व्यक्तियों तक या आगे आने वाली पीढ़ी तक भी पहुँचा दे तो उसे लिखित भाषा की आवश्यकता हुई होगी। अतः मौखिक भाषा को स्थायित्व प्रदान करने हेतु उच्चरितध्वनि प्रतीकों के लिए 'लिखित-चिह्नों' का विकास हुआ होगा।
इस तरह विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों ने अपनी-अपनी भाषिक ध्वनियों के लिए तरह-तरह की आकृति वाले विभिन्न लिखित-चिह्नों का निर्माण किया और इन्हीं लिखित-चिह्नों को 'वर्ण' (letter) कहा गया। अतः जहाँ मौखिक भाषा की आधारभूत इकाई ध्वनि (Phone) है तो वहीं लिखित भाषा की आधारभूत इकाई 'वर्ण' (letter) हैं।
लिखित भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) यह भाषा का स्थायी रूप है।(2) इस रूप में हम अपने भावों और विचारों को अनंत काल के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।
(3) यह रूप यह अपेक्षा नहीं करता कि वक्ता और श्रोता आमने-सामने हों।
(4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'वर्ण' हैं जो उच्चरित ध्वनियों को अभिव्यक्त (represent) करते हैं।
(5) यह भाषा का गौण रूप है।
इस तरह यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि भाषा का मौखिक रूप ही प्रधान या मूल रूप है। किसी व्यक्ति को यदि लिखना-पढ़ना (लिखित भाषा रूप) नहीं आता तो भी हम यह नहीं कह सकते कि उसे वह भाषा नहीं आती। किसी व्यक्ति को कोई भाषा आती है, इसका अर्थ है- वह उसे सुनकर समझ लेता है तथा बोलकर अपनी बात संप्रेषित कर लेता है।
(3) सांकेतिक भाषा
सांकेतिक भाषा :- जिन संकेतो के द्वारा बच्चे या गूँगे अपनी बात दूसरों को समझाते है, वे सब सांकेतिक भाषा कहलाती है।दूसरे शब्दों में- जब संकेतों (इशारों) द्वारा बात समझाई और समझी जाती है, तब वह सांकेतिक भाषा कहलाती है।
जैसे- चौराहे पर खड़ा यातायात नियंत्रित करता सिपाही, मूक-बधिर व्यक्तियों का वार्तालाप आदि।
इसका अध्ययन व्याकरण में नहीं किया जाता।
भाषा का उद्देश्य
भाषा का उद्देश्य है- संप्रेषण या विचारों का आदान-प्रदान।
भाषा के उपयोग
भाषा विचारों के आदान-प्रदान का सर्वाधिक उपयोगी साधन है। परस्पर बातचीत लेकर मानव-समाज की सभी गतिविधियों में भाषा की आवश्यकता पड़ती है। संकेतों से कही गई बात में भ्रांति की संभावना रहती है, किन्तु भाषा के द्वारा हम अपनी बात स्पष्ट तथा निर्भ्रांत रूप में दूसरों तक पहुँचा सकते हैं।
भाषा का लिखित रूप भी कम उपयोगी नहीं। पत्र, पुस्तक, समाचार-पत्र आदि का प्रयोग हम दैनिक जीवन में करते हैं। लिखित रूप में होने से पुस्तकें, दस्तावेज आदि लम्बे समय तक सुरक्षित रह सकते हैं। रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ तथा ऐतिहासिक शिलालेख आज तक इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वे भाषा के लिखित रूप में है।
भाषा की प्रकृति
भाषा सागर की तरह सदा चलती-बहती रहती है। भाषा के अपने गुण या स्वभाव को भाषा की प्रकृति कहते हैं। हर भाषा की अपनी प्रकृति, आंतरिक गुण-अवगुण होते है। भाषा एक सामाजिक शक्ति है, जो मनुष्य को प्राप्त होती है। मनुष्य उसे अपने पूवर्जो से सीखता है और उसका विकास करता है।यह परम्परागत और अर्जित दोनों है। जीवन्त भाषा 'बहता नीर' की तरह सदा प्रवाहित होती रहती है। भाषा के दो रूप है- कथित और लिखित। हम इसका प्रयोग कथन के द्वारा, अर्थात बोलकर और लेखन के द्वारा (लिखकर) करते हैं। देश और काल के अनुसार भाषा अनेक रूपों में बँटी है। यही कारण है कि संसार में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। भाषा वाक्यों से बनती है, वाक्य शब्दों से और शब्द मूल ध्वनियों से बनते हैं। इस तरह वाक्य, शब्द और मूल ध्वनियाँ ही भाषा के अंग हैं। व्याकरण में इन्हीं के अंग-प्रत्यंगों का अध्ययन-विवेचन होता है। अतएव, व्याकरण भाषा पर आश्रित है।
भाषा के विविध रूप
हर देश में भाषा के तीन रूप मिलते है-(1) बोलियाँ (2) परिनिष्ठित भाषा (3) राष्ट्र्भाषा
(1) बोलियाँ
बोलियाँ :- जिन स्थानीय बोलियों का प्रयोग साधारण अपने समूह या घरों में करती है, उसे बोली (dialect) कहते है।किसी भी देश में बोलियों की संख्या अनेक होती है। ये घास-पात की तरह अपने-आप जन्म लेती है और किसी क्षेत्र-विशेष में बोली जाती है। जैसे- भोजपुरी, मगही, अवधी, मराठी, तेलगु, इंग्लिश आदि।
(2) परिनिष्ठित भाषा
परिनिष्ठित भाषा :- यह व्याकरण से नियन्त्रित होती है। इसका प्रयोग शिक्षा, शासन और साहित्य में होता है। बोली को जब व्याकरण से परिष्कृत किया जाता है, तब वह परिनिष्ठित भाषा बन जाती है। खड़ीबोली कभी बोली थी, आज परिनिष्ठित भाषा बन गयी है, जिसका उपयोग भारत में सभी स्थानों पर होता है। जब भाषा व्यापक शक्ति ग्रहण कर लेती है, तब आगे चलकर राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के आधार पर राजभाषा या राष्टभाषा का स्थान पा लेती है। ऐसी भाषा सभी सीमाओं को लाँघकर अधिक व्यापक और विस्तृत क्षेत्र में विचार-विनिमय का साधन बनकर सारे देश की भावात्मक एकता में सहायक होती है। भारत में पन्द्रह विकसित भाषाएँ है, पर हमारे देश के राष्ट्रीय नेताओं ने हिन्दी भाषा को 'राष्ट्रभाषा' (राजभाषा) का गौरव प्रदान किया है। इस प्रकार, हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा है- रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी, जर्मनी की जर्मन, जापान की जापानी आदि।(3) राष्ट्र्भाषा
राष्ट्र्भाषा :- जब कोई भाषा किसी राष्ट्र के अधिकांश प्रदेशों के बहुमत द्वारा बोली व समझी जाती है, तो वह राष्टभाषा बन जाती है।दूसरे शब्दों में- वह भाषा जो देश के अधिकतर निवासियों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है, राष्ट्रभाषा कहलाती है।
सभी देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा होती है; जैसे- अमरीका-अंग्रेजी, चीन-चीनी, जापान-जापानी, रूस-रूसी आदि।
भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी है। यह लगभग 70-75 प्रतिशत लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है।
भाषा और लिपि
लिपि
लिपि - शब्द का अर्थ है-'लीपना' या 'पोतना' विचारो का लीपना अथवा लिखना ही लिपि कहलाता है।दूसरे शब्दों में- भाषा की उच्चरित/मौखिक ध्वनियों को लिखित रूप में अभिव्यक्त करने के लिए निश्चित किए गए चिह्नों या वर्णों की व्यवस्था को लिपि कहते हैं।
हिंदी और संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी है। अंग्रेजी भाषा की लिपि रोमन पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी और उर्दू भाषा की लिपि फारसी है।
मौखिक या उच्चरित भाषा को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भाषा के लिखित रूप का विकास हुआ। प्रत्येक उच्चरित ध्वनि के लिए लिखित चिह्न या वर्ण बनाए गए। वर्णों की पूरी व्यवस्था को ही लिपि कहा जाता है। वस्तुतः लिपि उच्चरित ध्वनियों को लिखकर व्यक्त करने का एक ढंग है।
सभ्यता के विकास के साथ-साथ अपने भावों और विचारों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए, दूर-सुदूर स्थित लोगों से संपर्क बनाए रखने के लिए तथा संदेशों और समाचारों के आदान-प्रदान के लिए जब मौखिक भाषा से काम न चल पाया होगा तब मौखिक ध्वनि संकेतों (प्रतीकों) को लिखित रूप देने की आवश्यकता अनुभव हुई होगी। यही आवश्यकता लिपि के विकास का कारण बनी होगी।
अनेक लिपियाँ
किसी भी भाषा को एक से अधिक लिपियों में लिखा जा सकता है तो दूसरी ओर कई भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है अर्थात एक से अधिक भाषाओं को किसी एक लिपि में लिखा जा सकता है। उदाहरण के लिए हिंदी भाषा को हम देवनागरी तथा रोमन दोनों लिपियों में इस प्रकार लिख सकते हैं-- देवनागरी लिपि - मीरा घर गई है।
- रोमन लिपि - meera ghar gayi hai.
इसके विपरीत हिंदी, मराठी, नेपाली, बोडो तथा संस्कृत सभी भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।
हिंदी जिस लिपि में लिखी जाती है उसका नाम 'देवनागरी लिपि' है। देवनागरी लिपि का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। ब्राह्मी वह प्राचीन लिपि है जिससे हिंदी की देवनागरी का ही नहीं गुजराती, बँगला, असमिया, उड़िया आदि भाषाओं की लिपियों का भी विकास हुआ है।
देवनागरी लिपि में बायीं ओर से दायीं ओर लिखा जाता है। यह एक वैज्ञानिक लिपि है। यह एक मात्र ऐसी लिपि है जिसमें स्वर तथा व्यंजन ध्वनियों को मिलाकर लिखे जाने की व्यवस्था है। संसार की समस्त भाषाओं में व्यंजनों का स्वतंत्र रूप में उच्चारण स्वर के साथ मिलाकर किया जाता है पर देवनागरी के अलावा विश्व में कोई भी ऐसी लिपि नहीं है जिसमें व्यंजन और स्वर को मिलाकर लिखे जाने की व्यवस्था हो। यही कारण है कि देवनागरी लिपि अन्य लिपियों की तुलना में अधिक वैज्ञानिक लिपि है।
अधिकांश भारतीय भाषाओं की लिपियाँ बायीं ओर से दायीं ओर ही लिखी जाती हैं। केवल उर्दू जो फारसी लिपि में लिखी जाती है दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती है।
नीचे की तालिका में विश्व की कुछ भाषाओं और उनकी लिपियों के नाम दिए जा रहे हैं-
क्रम | भाषा | लिपियाँ |
---|---|---|
1 | हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली, बोडो | देवनागरी |
2 | अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, इटेलियन, पोलिश, मीजो | रोमन |
3 | पंजाबी | गुरुमुखी |
4 | उर्दू, अरबी, फारसी | फारसी |
5 | रूसी, बुल्गेरियन, चेक, रोमानियन | रूसी |
6 | बँगला | बँगला |
7 | उड़िया | उड़िया |
8 | असमिया | असमिया |
हिन्दी में लिपि चिह्न
देवनागरी के वर्णो में ग्यारह स्वर और इकतालीस व्यंजन हैं। व्यंजन के साथ स्वर का संयोग होने पर स्वर का जो रूप होता है, उसे मात्रा कहते हैं; जैसे-अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ
क का कि की कु कू के कै को कौ
देवनागरी लिपि
देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। 'हिन्दी' और 'संस्कृत' देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। 'देवनागरी' लिपि का विकास 'ब्राही लिपि' से हुआ, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। 8वीं एवं 9वीं सदी में क्रमशः राष्ट्रकूट नरेशों तथा बड़ौदा के ध्रुवराज ने अपने देशों में इसका प्रयोग किया था। महाराष्ट्र में इसे 'बालबोध' के नाम से संबोधित किया गया।विद्वानों का मानना है कि ब्राह्मी लिपि से देवनागरी का विकास सीधे-सीधे नहीं हुआ है, बल्कि यह उत्तर शैली की कुटिल, शारदा और प्राचीन देवनागरी के रूप में होता हुआ वर्तमान देवनागरी लिपि तक पहुँचा है। प्राचीन नागरी के दो रूप विकसित हुए- पश्चिमी तथा पूर्वी। इन दोनों रूपों से विभिन्न लिपियों का विकास इस प्रकार हुआ-
प्राचीन देवनागरी लिपि:
पश्चिमी प्राचीन देवनागरी- गुजराती, महाजनी, राजस्थानी, महाराष्ट्री, नागरीपूर्वी प्राचीन देवनागरी- कैथी, मैथिली, नेवारी, उड़िया, बँगला, असमिया
संक्षेप में ब्राह्मी लिपि से वर्तमान देवनागरी लिपि तक के विकासक्रम को निम्नलिखित आरेख से समझा जा सकता है-
ब्राह्मी:
उत्तरी शैली- गुप्त लिपि, कुटिल लिपि, शारदा लिपि, प्राचीन नागरी लिपिप्राचीन नागरी लिपि:
पूर्वी नागरी- मैथली, कैथी, नेवारी, बँगला, असमिया आदि।
पश्चिमी नागरी- गुजराती, राजस्थानी, महाराष्ट्री, महाजनी, नागरी या देवनागरी।
दक्षिणी शैली-
देवनागरी लिपि पर तीन भाषाओं का बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
(i) फारसी प्रभाव : पहले देवनागरी लिपि में जिह्वामूलीय ध्वनियों को अंकित करने के चिह्न नहीं थे, जो बाद में फारसी से प्रभावित होकर विकसित हुए- क. ख. ग. ज. फ।
(ii) बांग्ला-प्रभाव : गोल-गोल लिखने की परम्परा बांग्ला लिपि के प्रभाव के कारण शुरू हुई।
(iii) रोमन-प्रभाव : इससे प्रभावित हो विभिन्न विराम-चिह्नों, जैसे- अल्प विराम, अर्द्ध विराम, प्रश्नसूचक चिह्न, विस्मयसूचक चिह्न, उद्धरण चिह्न एवं पूर्ण विराम में 'खड़ी पाई' की जगह 'बिन्दु' (Point) का प्रयोग होने लगा।
देवनागरी लिपि की विशेषताएँ
देवनागरी लिपि की निम्रांकित विशेषताएँ हैं-(1) आ (ा), ई (ी), ओ (ो) और औ (ौ) की मात्राएँ व्यंजन के बाद जोड़ी जाती हैं (जैसे- का, की, को, कौ); इ (ि) की मात्रा व्यंजन के पहले, ए (े) और ऐ (ै) की मात्राएँ व्यंजन के ऊपर तथा उ (ु), ऊ (ू), ऋ (ृ) मात्राएँ नीचे लगायी जाती हैं।
(2) 'र' व्यंजन में 'उ' और 'ऊ' मात्राएँ अन्य व्यंजनों की तरह न लगायी जाकर इस तरह लगायी जाती हैं-
र् +उ =रु । र् +ऊ =रू ।
(3) अनुस्वार (ां) और विसर्ग (:) क्रमशः स्वर के ऊपर या बाद में जोड़े जाते हैं;
जैसे- अ+ां =अं। क्+अं =कं। अ+:=अः। क्+अः=कः।
(4) स्वरों की मात्राओं तथा अनुस्वार एवं विसर्गसहित एक व्यंजन वर्ण में बारह रूप होते हैं। इन्हें परम्परा के अनुस्वार 'बारहखड़ी' कहते हैं।
जैसे- क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः।
व्यंजन दो तरह से लिखे जाते हैं- खड़ी पाई के साथ और बिना खड़ी पाई के।
(5) ङ छ ट ठ ड ढ द र बिना खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं और शेष व्यंजन (जैसे- क, ख, ग, घ, च इत्यादि) खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं। सामान्यतः सभी वर्णो के सिरे पर एक-एक आड़ी रेखा रहती है, जो ध, झ और भ में कुछ तोड़ दी गयी है।
(6) जब दो या दो से अधिक व्यंजनों के बीच कोई स्वर नहीं रहता, तब दोनों के मेल से संयुक्त व्यंजन बन जाते हैं।
जैसे- क्+त् =क्त । त्+य् =त्य । क्+ल् =क्ल ।
(7) जब एक व्यंजन अपने समान अन्य व्यंजन से मिलता है, तब उसे 'द्वित्व व्यंजन' कहते हैं।
जैसे- क्क (चक्का), त्त (पत्ता), त्र (गत्रा), म्म (सम्मान) आदि।
(8) वर्गों की अंतिम ध्वनियाँ नासिक्य हैं।
(9) ह्रस्व एवं दीर्घ में स्वर बँटे हैं।
(10) उच्चारण एवं प्रयोग में समानता है।
(11) प्रत्येक वर्ग में अघोष फिर सघोष वर्ण हैं।
(12) छपाई एवं लिखाई दोनों समान हैं।
(13) निश्चित मात्राएँ हैं।
(14) प्रत्येक के लिए अलग लिपि चिह्न है।
(15) इसके ध्वनिक्रम पूर्णतया वैज्ञानिक हैं।
मातृभाषा
मातृभाषा- खनूर सिंह का जन्म पंजाबीभाषी परिवार में हुआ है, इसलिए वह पंजाबी बोलता है। साक्षी शर्मा का जन्म हिंदीभाषी परिवार में हुआ है, इसलिए वह हिंदी बोलती है। पंजाबी व हिंदी क्रमशः उनकी मातृभाषाएँ हैं।इस प्रकार वह भाषा जिसे बालक अपने परिवार से अपनाता व सीखता है, मातृभाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- बालक जिस परिवार में जन्म लेता है, उस परिवार के सदस्यों द्वारा बोली जाने वाली भाषा वह सबसे पहले सीखता है। यही 'मातृभाषा' कहलाती है।
प्रादेशिक भाषा
प्रादेशिक भाषा- जब कोई भाषा एक प्रदेश में बोली जाती है तो उसे 'प्रादेशिक भाषा' कहते हैं।अन्तर्राष्ट्रीय भाषा
अन्तर्राष्ट्रीय भाषा- जब कोई भाषा विश्व के दो या दो से अधिक राष्ट्रों द्वारा बोली जाती है तो वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन जाती है। जैसे- अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है।राजभाषा
राजभाषा- वह भाषा जो देश के कार्यालयों व राज-काज में प्रयोग की जाती है, राजभाषा कहलाती है।जैसे- भारत की राजभाषा अंग्रेजी तथा हिंदी दोनों हैं। अमरीका की राजभाषा अंग्रेजी है।
मानक भाषा
मानक भाषा-विद्वानों व शिक्षाविदों द्वारा भाषा में एकरूपता लाने के लिए भाषा के जिस रूप को मान्यता दी जाती है, वह मानक भाषा कहलाती है।भाषा में एक ही वर्ण या शब्द के एक से अधिक रूप प्रचलित हो सकते हैं। ऐसे में उनके किसी एक रूप को विद्वानों द्वारा मान्यता दे दी जाती है; जैसे-
गयी - गई (मानक रूप)
ठण्ड - ठंड (मानक रूप)
अन्त - अंत (मानक रूप)
रव - ख (मानक रूप)
शुद्ध - शुदध (मानक रूप)
हिन्दी भाषा
बहुत सारे विद्वानों का मत है कि हिन्दी भाषा संस्कृत से निष्पन्न है; परन्तु यह बात सत्य नहीं है। हिन्दी की उत्पत्ति अपभ्रंश भाषाओं से हुई है और अपभ्रंश की उत्पत्ति प्राकृत से। प्राकृत भाषा अपने पहले की पुरानी बोलचाल की संस्कृत से निकली है। स्पष्ट है कि हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी। उनके नमूने ऋग्वेद में दिखते हैं। उसका विकास होते-होते कई प्रकार की प्राकृत भाषाएँ पैदा हुई। हमारी विशुद्ध संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है। प्राकृत भाषाओं के बाद अपभ्रशों और शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है।हिन्दी भाषा और उसका साहित्य किसी एक विभाग और उसके साहित्य के विकसित रूप नहीं हैं; वे अनेक विभाषाओं और उनके साहित्यों की समष्टि का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक बहुत बड़े क्षेत्र- जिसे चिरकाल से मध्यदेश कहा जाता रहा है- की अनेक बोलियों के ताने-बाने से बुनी यही एक ऐसी आधुनिक भाषा है, जिसने अनजाने और अनौपचारिक रीति से देश की ऐसी व्यापक भाषा बनने का प्रयास किया था, जैसी संस्कृत रहती चली आई थी; किन्तु जिसे किसी नवीन भाषा के लिए अपना स्थान तो रिक्त करना ही था।
वर्तमान हिन्दी भाषा का क्षेत्र बड़ा ही व्यापक हो चला। है इसे निम्नलिखित विभागों में बाँटा गया हैं-
बिहारी भाषा
(क) बिहारी भाषा : बिहारी भाषा बँगला भाषा से अधिक संबंध रखती है। यह पूर्वी उपशाखा के अंतर्गत है और बँगला, उड़िया और आसामी की बहन लगती है। इसके अंतर्गत निम्न बोलियाँ हैं- मैथली, मगही, भोजपुरी, पूर्वी आदि। मैथली के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ठाकुर और भोजपुरी के बहुत बड़े प्रचारक भिखारी ठाकुर हुए।पूर्वी हिन्दी
(ख) पूर्वी हिन्दी : अर्द्धमागधी प्राकृत के अप्रभ्रंश से पूर्वी हिन्दी निकली है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस जैसे महाकाव्यों की रचना पूर्वी हिन्दी में ही की। दूसरी तीन बोलियाँ हैं- अवध, बघेली और छत्तीसगढ़ी। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी प्रसिद्ध रचनाएँ इसी भाषा में लिखी हैं।पश्चिमी हिन्दी
(ग) पश्चिमी हिन्दी : पूर्वी हिन्दी तो बाहरी और भीतरी दोनों शाखाओं की भाषाओं के मेल से बनी हैं; परन्तु पश्चिमी हिन्दी का संबंध भीतरी शाखा से है।यह राजस्थानी, गुजराती और पंजाबी से संबंध रखती है। इस भाषा के कई भेद हैं- हिन्दुस्तानी, ब्रज, कनौजी, बुँदेली, बाँगरू और दक्षिणी।
गंगा-यमुना के बीच मध्यवर्ती प्रान्त में और दक्षिण दिल्ली से इटावे तक ब्रजभाषा बोली जाती है। गुड़गाँव और भरतपुर, करोली और ग्वालियर तक ब्रजभाषी हैं। इस भाषा के कवियों में सूरदास और बिहारीलाल ज्यादा चर्चित हुए।
कन्नौजी, ब्रजभाषा से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इटावा से इलाहाबाद तक इसके बोलनेवाले हैं। अवध के हरदोई और उन्नाव में यही भाषा बोली जाती है।
बुँदेली बुंदेलखंड की बोली है। झाँसी, जालौन, हमीरपुर और ग्वालियर के पूर्वी प्रान्त, मध्य प्रदेश के दमोह छत्तीसगढ़ के रायपुर, सिउनी, नरसिंहपुर आदि स्थानों की बोली बुँदेली है। छिंदवाड़ा और हुशंगाबाद के कुछ हिस्सों में भी इसका प्रचार है।
हिसार, झींद, रोहतक, करनाल आदि जिलों में बाँगरू भाषा बोली जाती है। दिल्ली के आसपास की भी यही भाषा है।
दक्षिण के मुसलमान जो हिन्दी बोलते हैं उसका नाम दक्षिणी हिन्दी है। इसके बोलनेवाले मुंबई, बरोदा, बरार, मध्य प्रदेश, कोचीन, कुग, हैदराबाद, चेन्नई, माइसोर और ट्रावनकोर तक फैले हैं। इन क्षेत्रों के लोग मुझे या मुझको की जगह 'मेरे को' बोलते हैं।
हिन्दुस्तानी भाषा के दो रूप हैं। एक तो वह जो पश्चिमी हिन्दी की शाखा है, दूसरी वह जो साहित्य में काम आती है। पहली गंगा-यमुना के बीच का जो भाग है उसके उत्तर में रुहेलखंड में और अम्बाला जिले के पूर्व में बोली जाती है। यह पश्चिमी हिन्दी की शाखा है। यही धीरे-धीरे पंजाबी में परिणत हुई। मेरठ के आस-पास और उसके कुछ उत्तर में यह भाषा अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती है। वहाँ उसका वही रूप है, जिसके अनुसार हिन्दी का व्याकरण बना है। रुहेलखंड में यह धीरे-धीरे कन्नौजी में और अंबाले में पंजाबी में परिणत हो गई है। अर्थात हिन्दुस्तानी और कुछ नहीं, सिर्फ ऊपरी दोआब की स्वदेशी भाषा है। दिल्ली में मुसलमानों के सहयोग से हिन्दी भाषा का विकास बहुत बढ़ा।
वर्तमान समय में इस भाषा का प्रचार इतना बढ़ गया है कि कोई प्रान्त, सूबा या शहर ऐसा नहीं रह गया है जहाँ इसके बोलनेवाले न हों। बंगाली, मद्रासी, गुजराती, मराठी, नेपाली आदि भिन्न भाषाएँ हैं फिर भी ये भाषा-भाषी हिन्दी को समझ लेते हैं। इसका व्याकरण वैज्ञानिक है। इस भाषा में संस्कृत के अलावा फ्रेंच, जापानी, बर्मी, चीनी, अंग्रेजी, पुर्तगाली आदि अनेकानेक भाषाओं के शब्दों की भरमार है। अतएव, इस भाषा का फैलाव बहुत तेजी से हुआ है। यही कारण है कि आज यह राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी है।
स्मरणीय तथ्य
'राजस्थानी हिन्दी' का विकास 'अपभ्रंश' से हुआ।'पश्चिमी हिन्दी' का विकास 'शौरसेनी' से हुआ।
'पूर्वी हिन्दी' का विकास 'अर्द्धमागधी' से हुआ।
'बिहारी हिन्दी' का विकास 'मागधी' से हुआ।
'पहाड़ी हिन्दी' का विकास 'खस' से हुआ।
भारत की भाषाओं की सूची
क्रं. सं. | भाषाएँ | बोलनेवालों का अनुपात % में |
---|---|---|
(1) | संस्कृत | 0.01 |
(2) | मराठी | 7.5 |
(3) | नेपाली | 0.3 |
(4) | पंजाबी | 2.8 |
(5) | संथाली | 0.6 |
(6) | मलयालम | 3.6 |
(7) | मणिपुरी | 0.2 |
(8) | असमिया | 1.6 |
(9) | ओड़िया | 3.4 |
(10) | गुजराती | 4.9 |
(11) | कश्मीरी | 0.5 |
(12) | कन्नड़ | 3.9 |
(13) | डोगरी | 0.2 |
(14) | कोंकणी | 0.2 |
(15) | तमिल | 6.3 |
(16) | बांग्ला | 8.3 |
(17) | सिंधी | 0.3 |
(18) | उर्दू | 5.2 |
(19) | बोडो | 0.1 |
(20) | तेलुगू | 7.9 |
(21) | हिन्दी | 40.2 |
भाषा एक संप्रेषण के रूप में
'संप्रेषण' एक व्यापक शब्द है। संप्रेषण के अनेक रूप हो सकते हैं। कुछ लोग इशारों से अपनी बात एक-दूसरे तक पहुँचा देते हैं, पर इशारे भाषा नहीं हैं। भाषा भी संप्रेषण का एक रूप है।भाषा के संप्रेषण में दो लोगों का होना जरूरी होता है- एक अपनी बात को व्यक्त करने वाला, दूसरा उसकी बात को ग्रहण करने वाला। जो भी बात इन दोनों के बीच में संप्रेषित की जाती है, उसे 'संदेश' कहते हैं। भाषा में यही कार्य वक्ता और श्रोता द्वारा किया जाता है। संदेश को व्यक्त करने के लिए वक्ता किसी-न-किसी 'कोड' का सहारा लेता है। कोई इशारों से तो कोई ताली बजाकर अपनी बात कहता है। इस तरह इशारे करना या ताली बजाना एक प्रकार के 'कोड' हैं। वक्ता और श्रोता के बीच भाषा भी 'कोड' का कार्य करती है। भाषा में यह 'कोड' दो तरह के हो सकते हैं- यदि वक्ता बोलकर अपनी बात संप्रेषित करना चाहता है तो वह उच्चरित या मौखिक भाषा (कोड) का सहारा लेना होता है और यदि लिखकर अपनी बात संप्रेषित करना चाहता है तो उसे लिखित भाषा का सहारा लेना होता है।
संप्रेषण के अंतर्गत वक्ता और श्रोता की भूमिकाएँ बदलती रहती हैं। जब पहला व्यक्ति अपनी बात संप्रेषित करता है तब वह वक्ता की भूमिका निभाता है और दूसरा श्रोता की तथा जब दूसरा (श्रोता) व्यक्ति अपनी बात कहता है तब वह वक्ता बन जाता है और पहला (वक्ता) श्रोता की भूमिका निभाता है। कुल मिलाकर यह स्थिति बनती है कि वक्ता पहले किसी संदेश को कोड में बदलता है या कोडीकरण करता है तथा श्रोता उस संदेश को ग्रहण कर कोड से उसके अर्थ तक पहुँचता है या उस कोड का विकोडीकरण करता है। वक्ता और श्रोता के बीच कोडीकरण तथा विकोडीकरण की प्रकिया बराबर चलती रहती है-
.......... संदेश..........
वक्ता....................... श्रोता
कोडीकरण ............. विकोडीकरण
यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वक्ता और श्रोता के बीच जिस 'कोड' का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे दोनों परिचित हों अन्यथा दोनों के बीच संप्रेषण नहीं हो सकता।
मानव संप्रेषण तथा मानवेतर संप्रेषण
संप्रेषण अथवा विचारों का आदान-प्रदान केवल मनुष्यों के बीच ही नहीं होता; मानवेतर प्राणियों के बीच भी होता है। कुत्ते, बंदर तरह-तरह की आवाजें निकालकर दूसरे कुत्ते और बंदरों तक अपनी बात संप्रेषित करते हैं। मधुमक्खियाँ तरह-तरह के नृत्य कर दूसरी मधुमक्खियों तक अपना संदेश संप्रेषित करती हैं। परन्तु मानवेतर संप्रेषण को 'भाषा' नहीं कहा जाता भले ही पशु-पक्षी तरह-तरह की ध्वनियाँ उच्चरित कर संप्रेषण करते हैं। वस्तुतः भाषा का संबंध तो केवल मनुष्य मात्र से है। भाषा का संबंध मानव मुख से उच्चरित ध्वनियों के साथ है या दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि 'भाषा' मानव मुख से उच्चरित होती है।भाषा एक प्रतीक व्यवस्था के रूप में
यह तो ठीक है कि भाषा मनुष्य के मुख से (वागेंद्रियों से) उच्चरित होती है पर उच्चारण के अंतर्गत मनुष्य तरह-तरह की ध्वनियों (स्वर तथा व्यंजन) के मेल से बने शब्दों का उच्चारण करता है। इन शब्दों से वाक्य बनाता है और वाक्यों के प्रयोग से वह वार्तालाप करता है। एक ओर भाषा के इन शब्दों का कोई-न-कोई अर्थ होता है दूसरी ओर ये किसी-न-किसी वस्तु की ओर संकेत करते हैं। उदाहरण के लिए 'किताब' शब्द का हिंदी में एक अर्थ है, जिससे प्रत्येक हिंदी भाषा-भाषी परिचित है दूसरी ओर यह शब्द किसी वस्तु (object) यानी किताब की ओर भी संकेत करता है। यदि हम किसी से कहते हैं कि 'एक किताब लेकर आओ' तो वह व्यक्ति 'किताब' शब्द को सुनकर उसके अर्थ तक पहुँचता है और फिर 'किताब' को ही लेकर आता है, किसी अन्य वस्तु को नहीं।कहने का तात्पर्य यही है कि 'शब्द' अपने में वस्तु नहीं होता बल्कि किसी वस्तु को अभिव्यक्त (represent) करता है। इसी बात को इस तरह से कहा जा सकता है कि शब्द तो किसी वस्तु का प्रतीक (sign) होता है।
'प्रतीक' जिस अर्थ तथा वस्तु की ओर संकेत करता है, वस्तुतः वह संसार में सबके लिए समान होते हैं अंतर केवल प्रतीक के स्तर पर ही होता है। 'किताब' शब्द (प्रतीक) का अर्थ तथा वस्तु किताब तो संसार में हर भाषा-भाषी के लिए समान है अंतर केवल 'प्रतीक' के स्तर पर ही है। कोई उसे 'बुक' (book) कहता है तो कोई 'पुस्तक' । इस तरह प्रत्येक 'प्रतीक' की प्रकृति त्रिरेखीय् (three dimentional) होती है। एक ओर वह 'वस्तु' की ओर संकेत करता है तो दूसरी ओर उसके अर्थ की ओर-
अर्थ (कथ्य)प्रतीक (अभिव्यक्ति)...............वस्तु/पशु
घोड़ा (हिंदी)
अश्व (संस्कृत)
होर्स (अंग्रेजी)
कोनि (पोलिश)
वस्तुतः प्रतीक वह है जो किसी समाज या समूह द्वारा किसी अन्य वस्तु, गुण अथवा विशेषता के लिए प्रयुक्त किया जाता है। उदाहरण के 'घोड़ा' वस्तु/पशु के लिए हिंदी में ध्वन्यात्मक प्रतीक है। 'घोड़ा', संस्कृत में 'अश्व', अंग्रेजी में 'होर्स' (horse) तथा पोलिश भाषा 'कोनि' कहलाता है। दूसरी ओर इन सभी भाषा-भाषियों के लिए घोड़ा (पशु) तथा उसका अर्थ समान है। इसी तरह 'लाल बत्ती' (red light) संसार में सभी के लिए रुकने का तथा 'हरी बत्ती' (green light) चलने का प्रतीक है। अतः ध्यान रखिए भाषा का प्रत्येक शब्द किसी-न-किसी वस्तु का प्रतीक होता है। इसलिए यह कहा जाता है कि भाषा ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है। भाषा में अर्थ ही 'कथ्य' होता है तथा प्रतीक अभिव्यक्ति। अतः भाषा कथ्य और अभिव्यक्ति का समन्वित रूप है।
प्रतीकों के संबंध में एक बात और ध्यान रखने योग्य यह है कि वस्तु के लिए प्रतीक का निर्धारण ईश्वर की इच्छा से न होकर मानव इच्छा द्वारा होता है। किसी व्यक्ति ने हिंदी में एक वस्तु को 'कुर्सी' और दूसरी को 'मेज' कह दिया और उसी को समस्त भाषा-भाषियों ने यदि स्वीकार कर लिया तो 'कुर्सी' और 'मेज' शब्द उन वस्तुओं के लिए प्रयोग में आने लगे। अतः वस्तुओं के लिए प्रतीकों का निर्धारण 'यादृच्छिक' (इच्छा से दिया गया नाम) होता है। इस तरह प्रतीक का निर्धारण व्यक्ति द्वारा होता है और उसे स्वीकृति समाज द्वारा दी जाती है। इसलिए भाषा का संबंध एक ओर व्यक्ति से होता है तो दूसरी ओर समाज से। अतः भाषा केवल ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था नहीं है, बल्कि यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था होती है।
भाषा एक व्यवस्था के रूप में
उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भाषा एक व्यवस्था (system) है। व्यवस्था से तात्पर्य है 'नियम व्यवस्था' । जहाँ भी कोई व्यवस्था होती है, वहाँ कुछ नियम होते हैं। नियम यह तय करते हैं कि क्या हो सकता है और क्या नहीं हो सकता। भाषा के किसी भी स्तर पर (ध्वनि, शब्द, पद, पदबंध, वाक्य आदि) देखें तो सभी जगह आपको यह व्यवस्था दिखाई देगी। कौन-कौन सी ध्वनियाँ किस अनुक्रम (combination) में मिलाकर शब्द बनाएँगी और किस अनुक्रम से बनी रचना शब्द नहीं कहलाएगी, यह बात उस भाषा की ध्वनि संरचना के नियमों पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए हिंदी के निम्नलिखित अनुक्रमों पर ध्यान दीजिए-(1) क् + अ + म् + अ + ल् + अ = कमल ........(सही)
(2) क् + अ + ल् + अ + म् +अ = कलम ...........(सही)
(3) म् + अ + क् + अ + ल् + अ = मकल ..........(गलत)
(4) ल् + अ + क् + अ + म् + अ = लकम ...........(गलत)
ऊपर के चारों अनुक्रमों में समान व्यंजन एवं स्वर ध्वनियों से शब्द बनाए गए हैं, किंतु सार्थक होने के कारण 'कमल' तथा 'कलम' तो हिंदी के शब्द हैं पर निरर्थक होने के कारण 'मकल' तथा 'लकम' हिंदी के शब्द नहीं हैं। अतः ध्यान रखिए, हर भाषा में कुछ नियम होते हैं ये नियम ही उस भाषा की संरचना को संचालित या नियंत्रित करते हैं। इसलिए भाषा को 'नियम संचालित व्यवस्था' कहा जाता है।
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