प्रस्तावना
पुस्तकों को मातृरूप में देखने वाले और उनके प्रति मातृवत् व्यवहार करने वाले व्यक्ति सदैव माँ के स्नेहासिक्त् वरदहस्त की अनुभूति करते हैं । पुस्तकों का अध्ययन व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है । धूर्त इस अध्ययन की भर्त्सना करते हैं , मूर्ख उसकी प्रशंसा मात्र करके सन्तुष्ट हो जाते हैं , लेकिन चतुर व्यक्ति पुस्तकों के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान का उपयोग अपने जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने में करते हैं ,
पुस्तक और माता
जन्म के उपरान्त बालक के मुखमण्डल पर मुस्कान का प्रथम दर्शन माता करती है । ज्ञान - प्राप्ति के उपरान्त प्राप्त होने वाली प्रथम प्रसन्नता पुस्तक प्रदान करती है । माता बालक को कुछ बनाने का स्वप्न देखती हैं । पुस्तकें अध्येता को कुछ बना देती हैं । माता बालक की प्रथम गुरु होती है । पुस्तकें आरम्भ से अन्त तक ज्ञान प्रदान करने वाले गुरु का कार्य करती हैं । माता प्रेम प्रदान करती है । पुस्तकें प्रेमपूर्वक ज्ञान प्रदान करती हैं । माता बालक से किसी अवस्था में विलग हो सकती है , हो ही जाती है , परन्तु पुस्तकें कभी भी अपने अध्येता से विलग नहीं होती हैं ; अपितु अध्येता ज्यों - ज्यों उनके साथ निकटता का अनुभव करता है , त्यों - त्यों पुस्तकें उसको अपने अंचल में समेट लेती हैं ।
एक यहूदी कहावत के अनुसार “ परमात्मा हर स्थान पर , हर समय जीव की सहायता नहीं कर सकता है , इसलिए उसने माता का निर्माण किया । " हमारा संशोधन है , माता हर समय बालक के साथ नहीं रह सकती है , इसलिए परमात्मा ने पुस्तकों का निर्माण किया । पुस्तकों को मातृरूप में देखने वाले और उनके प्रति मातृवत् व्यवहार करने वाले व्यक्ति सदैव माँ के स्नेहसिक्त वरदहस्त की अनुभूति करते हैं । बेकन नाम के अंग्रेजी के प्रसिद्ध गद्यकार ने लिखा है कि " पुस्तकों का अध्ययन व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है । जो धूर्त हैं , वे अध्ययन की भर्त्सना करते हैं , मूर्ख उसकी प्रशंसा भर करके सन्तुष्ट हो जाते हैं और जो चतुर होते हैं वे पुस्तकों के अध्ययन द्वारा प्राप्त ज्ञान का लाभ जीवन - व्यवहार में उठाते हैं ।
पुस्तकों का ऋण
माता के ऋण से बड़ा क्या कोई उऋण हो सकता है ? कदापि नहीं । भारत के ऋषियों ने पितृ - ऋण से उऋण होने का उपदेश दिया है , मातृ - ऋण से उऋण होने की कल्पना भी वे नहीं कर सके थे । पुस्तकों द्वारा प्राप्त ज्ञान से भी हमारे उऋण होने का प्रश्न उत्पन्न नहीं हो सकता है । पुस्तकें न हों , तो हम अपने मन की बात भी नहीं कह सकेंगे । कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ ने पुस्तकों को लक्ष्य करके एक स्थान पर लिखा है कि " पुस्तकें प्रकाश - गृह हैं , जो समय के विशाल समुद्र में खड़ी होकर हमारा मार्गदर्शन करती हैं । "
पुस्तकों की अवज्ञा करने वाले व्यक्ति
जीवन में मार्गदर्शन करने वाली पुस्तकों की अवज्ञा करने वाले व्यक्ति सदैव अंधकार में रहते हैं , जीवन भर भटकते रहते हैं और अन्ततः प्रकाश स्तम्भ के दिशा - निर्देश की उपेक्षा करके चलने वाले जल - पोत की भाँति दुर्घटनाग्रस्त होकर नाश को प्राप्त होते हैं । इसी तथ्य को महात्मा गांधी ने आत्मसात् करते हुए कहा है कि " अच्छी पुस्तकों के पास रहने से हमें भले मित्रों के साथ न रहने की कमी नहीं खटकती । जितना ही मैं पुस्तकों का अध्ययन करता गया , उतनी ही अधिक उनकी विशेषताएं मुझको विदित होती गई ।
मन की स्थायी सम्पत्ति
" माता मुँह - हाथ आदि धोकर हमारे शरीर को स्वच्छ करके हमें समाज में जाने योग्य बनाती है , पुस्तकें मन को निर्मल बनाने वाले साबुन का काम करती हैं और हमें समाज में सर ऊँचा करके जाने की क्षमता प्रदान करती हैं । पुस्तकों की सार संवार करके हम माता द्वारा की जाने वाली सार - संवार की अनुभूति को अपने मन की स्थायी सम्पत्ति बना सकते हैं । स्वामी विवेकानन्द ने नरक में भी अच्छी पुस्तकों के स्वागत करने की इच्छा प्रकट की थी । हमारे अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने पुस्तकों के सहारे ही अपने जेल - जीवन को सार्थक बनाया था । न मालूम कितने युद्ध - बन्दियों ने श्रीमद्भगवद्गीता , बाइबिल जैसी पुस्तकों का सहारा लेकर अपने यन्त्रणापूर्ण जीवन को हँसकर काट दिया था !
पुस्तकों के महत्व
हमारे उदीयमान युवक - युवतियों का कर्तव्य है कि वे जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए पुस्तकों के महत्व को समझें और उनके प्रति आदर - भाव का विकास करें । यदि वे पुस्तकों से प्रेम नहीं करेंगे , उन्हें पढ़ेंगे नहीं , पढ़ने के लिए पुस्तकें खरीदेंगे नहीं और खरीदकर उन्हें सावधानी से रखेंगे नहीं , तो सतत् ज्ञान - प्राप्ति की प्रक्रिया से वंचित हो जाएंगे । गिबन नाम के विद्वान ने कहा है कि " पुस्तकें वे विश्वस्त दर्पण हैं , जो सन्तों , शूरों एवं मनीषियों के मस्तिष्क का परावर्तन हमारे मस्तिष्क पर करती हैं । "
पपुस्तकों से ज्ञान
पुरातन और नवीन , भारतीय और अभारतीय , समस्त मनीषी निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं कि कुछ पुस्तकें मात्र चखने योग्य अर्थात् सरसरी निगाह डालने योग्य होती हैं , कुछ पुस्तकें पचाए जाने योग्य होती हैं तथा कुछ पुस्तकों में निहित ज्ञान इतना श्रेष्ठ होता है कि जुगाली करके उसे आत्मसात् कर लिया जाना चाहिए । इसी के साथ यह तथ्य भी हमारे सामने आता है कि हम पुस्तकों के चयन का अभ्यास करें तथा तत्सम्बन्धी योग्यता का विकास करें । कालटन ( Calton ) नाम के विद्वान द्वारा प्रदत्त परामर्श के अनुसार “ मित्रों की भाँति हमको पूरी सावधानी के साथ श्रेष्ठ पुस्तकों का चयन करना चाहिए , भले ही अच्छे मित्रों की भाँति उनकी संख्या कम हो । मित्रों की तरह हम सहायतार्थ बार - बार पुस्तकों के पास जाएं , क्योंकि सच्चे दोस्तों की भाँति , वे हमको कभी भी निराश नहीं करेंगी , वे सदैव हमारा मार्गदर्शन करेंगी , हमको सदैव उपयोगी निर्देश देंगी । श्रेष्ठ पुस्तकों की उपलब्धि श्रेष्ठ मित्रों की उपलब्धि से कम महत्वपूर्ण नहीं होती है । "
पुस्तकों का शासन स्वीकार
सभ्य राष्ट्रों पर पुस्तकों का शासन होता है । सभ्य बनने के लिए पुस्तकों का शासन स्वीकार करना अनिवार्य है । इसी से कहा जाता है कि A man is known by the books he reads- व्यक्ति की पहचान उन पुस्तकों द्वारा की जाती है जिन्हें वह पढ़ता है । श्रेष्ठ बनने के लिए , सफलता प्राप्त करने के लिए आप श्रेष्ठ पुस्तकें संकलित कीजिए । आपका पुस्तकालय आपकी अस्मिता को प्रमाणित करेगा और ऋषिऋण से उऋण होने में आपकी सहायता करेगा ।
पुस्तकालय
समस्त आवश्यक पुस्तकों को बिरले जन ही अपने संकलन में रखने में समर्थ होते हैं । इसीलिए पुस्तकों के प्रेमी अध्येताओं के लिए पुस्तकालय नामक संस्था की स्थापना की गई है । आप और हम सब पुस्तकालय जाकर आवश्यक पुस्तकों के अध्ययन का अभ्यास करें । पुस्तकालय वास्तव में सरस्वती के मन्दिर , ज्ञान के भण्डार , साहित्य के यश - स्तम्भ , विद्या के कल्पद्रुम , आनन्द के उद्यान , शान्ति के आधार तथा जिज्ञासुओं के लिए पारदर्शी आचार्य होते हैं ।
पुस्तकालय की प्रत्येक ईंट पर यह रहस्य अंकित रहता है - अन्दर आकर ज्ञान प्राप्त कीजिए , बाहर जाकर जीवन को सफल बनाइए ।
महात्मा गांधी कहा करते थे- " श्रीमद् भगवद्गीता मेरी माता है । उद्विग्न होने पर मैं उसकी गोद में चला जाता हूँ । आप भी श्रेष्ठ पुस्तकों को माता स्वरूप समझिए और असफलता की दुश्चिन्ताओं से मुक्ति पाइए । "
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