भारतीय संविधान के विदेशी श्रोत | Foreign sources of Indian constitution
कनाडा से राज्यों में शक्ति का विभाजन ( संघवाद )
संघवाद (फ़ेडरलिज़्म) संवैधानिक राजसंचालन की उस प्रवृत्ति का प्रारूप है जिसके अंतर्गत विभिन्न राज्य एक संविदा द्वारा एक संघ की स्थापना करते हैं। इस संविदा के अनुसार एक संघीय सरकार एवं अनेक राज्य सरकारें संघ की विभिन्न इकाइयाँ हो जाती हैं।
सामान्य रूप से प्रभुसत्ता का विभाजन संघीय एवं राज्यसरकारों के मध्य उनके संविधान में उल्लिखित होता है जो उस संविदा को अंतिम रूप से पुष्ट करता है। साधारणतया संघीय सरकार को ऐसे कार्यों के संचालन का भार दिया जाता है जिन्हें क्षेत्रविस्तार खर्चीला अथवा दुरूह होने के कारण राज्य स्वयं चलाने में कठिनाई प्रतीत करते हैं।
अत: इन कार्यों के चलाने के लिए वे सब इकाइयाँ प्रतीत करते हैं। अत: इन कार्यों के चलाने के लिए वे सब इकाइयाँ अपनी राजशक्तियों का एक निश्चित भाग संघीय सरकार को अधिकार एवं साधन के रूप में प्रदान कर देते हैं। शेष अन्य विषयों में राज्य स्वयं कार्यभार वहन करते हैं एवं उसके प्रतिरूप अधिकार एवं साधन के रूप में प्रदान कर देते हैं।
शेष अन्य विषयों में राज्य स्वयं कार्यभार वहन करते हैं एवं उसके प्रतिरूप अधिकार एवं साधन संविधान द्वारा लेते हैं। इस प्रकार एकात्मक संविधान (यूनिटरी संविधान) के विपरीत संघात्मक संविधान एक ही संविधान के अंतर्गत राजद्वै (डुवल पालिटी) को स्थापना करता है। परिणामस्वरूप ऐसे संघ के नागरिक दो प्रकार की सरकारों, संघीय एवं राज्य सरकारों के अधीनस्थ होते हैं।
संघात्मक संविधान की विशेषताएँ-
भारत : संघात्मक या एकात्मक –
उदाहरणार्थ, सबसे विशिष्ट तथ्य यह है कि भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी इसका निर्माण स्वतंत्र राष्ट्रों की किसी संविदा द्वारा नहीं हुआ है; बल्कि यह उन राज इकाइयों के मेल (यूनियन) से बना है जो परंतंत्र एकात्मक भारत के अंग के रूप में पहले से ही विद्यमान थे।
दूसरी विशेषता यह है कि आपत्काल में भारतीय संविधान में एकात्मक संविधानों के अनुरूप केंद्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए प्रावधान निहित हैं।
तृतीय विशेषता यह है कि केवल एक नागरिकता (भारतीय नागरिकता) का ही समावेश किया गया है तथा एक ही संविधान केंद्र तथा राज्य दोनों ही सरकारों के कार्यसंचालन के लिए व्यवस्थाएँ प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त संविधान सभा के मतानुसार भारत एक शिशु गणतंत्र की अवस्था में है,
अत: देश के तीव्र एवं सर्वतोमुखी विकास एवं उन्नति के लिए समय समय पर उपयुक्त प्रावधानों की आवश्यकता पड़ सकती है जिसके लिए संविधान संशोधन की तीन विभिन्न प्रक्रियाएँ दी गई हैं। केवल विशेष संघात्मक प्रावधानों के संशोधन के लिए ही राज्यों का मत आवश्यक है, बाकी संशोधन संसद् स्वयं कर सकती है। इस प्रकार संघात्मक संविधानों के विकास में भारतीय संविधान एक नई प्रवृत्ति, केंद्रीकरण, का सूत्रपात करता है।
आयरलैंड से ➠ नीति निदेशक तत्व
किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण में मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देश महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राज्य के नीति निर्देशक तत्व (directive principles of state policy) जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं। सबसे पहले ये आयरलैंड के संविधान मे लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए है। इन तत्वों का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) की स्थापना करना है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्व शामिल किए गये हैं। भारतीय संविधान के भाग 3 तथा 4 मिलकर संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते है इन तत्वों में संविधान तथा सामाजिक न्याय के दर्शन का वास्तविक तत्व निहित हैं। निदेशक तत्व कार्यपालिका और विधायिका के वे तत्व हैं, जिनके अनुसार इन्हे अपने अधिकारों का प्रयोग करना होता है।
अनु 37 के अनुसार ये तत्व किसी न्यायालय मे लागू नही करवाये जा सकते यह तत्व वैधानिक न होकर राजनैतिक स्वरूप रखते है तथा मात्र नैतिक अधिकार रखते है। वे न तो कोई वैधानिक बाध्यता ही राज्य पे लागू करते है न जनता हेतु अधिकार कर्तव्य। वे मात्र राज्य के लिये ऐसे सामान्य निर्देश है कि राज्य कुछ ऐसे कार्य करे जो राज्य की जनता के लिये लाभदायक हो। इन निर्देशों का पालन कार्यपालिका की नीति तथा विधायिका की विधियाँ से हो सकता है।
भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्व
अनुच्छेद 36 : राज्य की परिभाषा
37 : इस भाग में अंतर्विष्ट तत्वों का लागू होना
38 : राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा
39 : राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व
39 : कसमान न्याय और नि:शुल्क विधिक सहायता
40 : ग्राम पंचायतों का संगठन
41 : कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार
42 : काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध
43 : कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि
43 : कउद्योगों के प्रबंध में कार्मकारों का भाग लेना
44 : नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता
45 : बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध
46 : अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि
47 : पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य को सुधार करने का राज्य का कर्तव्य
48 : कृषि और पशुपालन का संगठन
48 : कपर्यावरण का संरक्षण और संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा
49 : राष्ट्रीय महत्व के संस्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण देना
50 : कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण
51 : अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि
मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद
(1) मौलिक अधिकार राज्य की नकारात्मक भूमिका का वर्णन करते है तथा राज्य को कुछ विशेष कृत्य करने से रोकते है वही ये तत्व राज्य की सकारात्मक भूमिका दायित्व का वर्णन करते है तथा राज्य से अपेक्षा करते है कि वह जनकल्याण हेतु विशिष्ट प्रयास करें
(2) मौलिक अधिकार देश मे राजनैतिक जनतंत्र स्थापित करते है वही ये तत्व देश मे सामाजिक आर्थिक जनतंत्र लाते है
(3) मौलिक अधिकार जनता को दिये जा चुके है वही निर्देशक तत्व निर्देशात्मक है जो न्ये अधिकारों की चर्चा तो करते है पर्ंतु वास्तव मे देते कुछ नही है
(4) मौलिक अधिकार कड़े वैधानिक शब्दों मे वर्णित हैं, जब कि तत्व मात्र सामान्य भाषा में।
(5) दोनों की न्यायालय मे स्थिति पूर्णतः भिन्न है सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्देशक तत्व 39 ब तथा स है।
अनु 39 ब के अनुसार राज्य के संसाधन इस प्रकार प्रयोग हो कि उनका लाभ जनसंख्या के सभी भागों को प्राप्त हों
अनु 39 स कुछ व्यक्तियॉ के हाथों मे धन के केन्द्रीयकरण को रोकता है
अनु 37 के अनुसार नीति निर्देशक तत्वों को न्यायालय मे प्राप्त करने लायक तो नही बताते है पर्ंतु देश के शासन मे इन्हे मौलिक रूप मे निहित मानते है यह राज्य का कर्तव्य है कि वह इन तत्वॉ को अपनी नीतियॉ तथा संसद द्वारा बनाये कानूनॉ मे स्थान दे।
चंपर दुराई राजन वाद 1951 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि ये तत्व अनिवार्य रूप से मौलिक अधिकारों के अधीनस्थ है उन पर प्रभुता नही रख सकते दोनों मे विवाद पैदा होने पर मौलिक अधिकार वरीयता पायेंगे,
किंतु जब राज्य विधायिका ने जमींदारी उन्मूलन प्रांरभ किया ताकि अनु 39 ब 39 स के निदेशक तत्वॉ को प्रभावी कर सके तब सर्वोच्च न्यायालय ने इन तत्वॉ का मह्त्व समझा तथा कामेश्वर सिंह बनाम बिहार वाद 1952 से रीकेरल शिक्षा बिल वाद 1957 तक सुप्रीम कोर्ट ने माना कि नीति निर्देशक तत्व मौलिक अधिकार पे प्रश्रय नही पा सकते, परंतु बाद मे न्यायालय ने हार्मोनी सिद्धांत प्रतिपादित किया तथा सहयोगात्मक विकास का प्रयास किया तथा दोनो को उतना प्रभावी करने का प्रयास किया जितना सभंव था। हार्मोनी सिद्धांत दोनो के मध्य कोई संघर्ष नही मान कर दोनॉ को एक दूसरे का पूरक मानता है।
इस सिद्धांत के अनुसार यदि दो व्याख्यांए संभव है जो कि नीति निर्देशक तत्व को मौलिक अधिकार के साथ संतुलन स्थापित करे वही दूसरी व्याख्या उनमे विवाद बताये तो न्यायालय को दूसरी व्याख्या पर प्रथम व्याख्या की वरीयता देनी चाहिए यदि मात्र एक व्याख्या संभव हो और जो नीति – अधिकारॉ में संघर्ष पैदा करे तो न्यायालय बाध्य है कि नीति निदेशक तत्वॉ पर अधिकारॉ को वरीयता ‘द’ प्रिवी पर्स उन्मूलन तथा बैंकिग राष्ट्रीयकरण अधिनियम जो कि अनु 39 ‘ब’ तथा ‘स’ की पालना हेतु लाये गये थे।
सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारॉ का उल्लघंन करने के कारण [अनु 14,19,31] असंवैधानिक घोषित कर दिय संसद ने इसके प्रत्युत्तर मे 25 वा संशोधन 1971 पारित कर दिया तथा अनु 31 स को जन्म दिया जो कि कहता है कि यदि कोई विधि पारित की जाती जो कि 39 ब स के नीति निर्देशक तत्वॉ को प्रभावी करती है तथा इस प्रक्रिया मे यदि अनु 14, 19, 31 के अधिकारॉ का उल्लघंन करे तो उसे इस आधार पर असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता
अनुच्छेद 31 स के अनुसार कोई विधि जो अनु 39 ब स को प्रभावी करती है किसी भी न्यायालय मे परीक्षित नही की जा सकेगी। केशवानंद भारती वाद मे इस संशोधन को चुनौती दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने अनु 31 स के प्रथम भाग को वैध मान लिया किंतु दूसरे भाग को इस आधार पर खारिज कर दिया क्योंकि वह न्यायपालिका की पुनरीक्षण शक्ति छीन लेती है जो कि संविधान के मूल ढाँचें का अंग है।
इस वाद के निर्णय से प्रीवी पर्स तथा बैंकिग राष्ट्रीयकरण अधिनियम वैध हो गये। 42 वा संविधान संशोधन अधिनियम 1976 31 स को संशोधित करता है इसमें कहा गया है कि संशोधित 31 स के अनुरूप यदि राज्य कोई ऐसी विधि बनाये जो कि किसी भी नीति निदेशक तत्व को प्रभावी करे इस आधार पर असंवैधानिक घोषित नहीं कर सकते कि वह अनु 14,19,31 का उल्लघंन् करते इसी तरह वह विधि न्यायालय मे चुनौती प्राप्त नही कर सकती।
इस संशोधन को मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ वाद 1980 मे चुनौती दी गयी जिसमे सुप्रीम कोर्ट ने अनु 31 स मे किये गये नये संशोधन को गैर संवैधानिक घोषित कर दिया क्यॉकि यह संविधान के भाग 3 तथा 4 के संतुलन को बिगाड़ देता था। 44 वे संशोधन 1978 ने अनु 31 का ही विलोपन कर दिया। वर्तमान स्थिति यह है कि दो निदेशन तत्व 39 ब, स दो मौलिक अधिकरॉ 14, 19 पे वरीयता देकर लागू किए जा सकते है।
नीति निदेशक तत्वों का महत्व
संविधान सभा में भाग 4 के महत्व पे प्रश्न किया गया तथा कहा गया कि यह भाग ही व्यर्थ है क्योंकि ये तत्व कोई वैधानिकता नही रखते हैं। वास्तव मे ये वे परीक्षण गुब्बारे है जो कि सत्ता में विद्यमान सरकार की क्षमता का परीक्षण करते हैं। कुछ विधियों की संवैधानिकता का परीक्षण नीति निदेशक तत्वों को ध्यान मे रखकर किया जा सकेगा। इनका शैक्षणिक महत्व है।
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