हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास
आधुनिक युग गद्य साहित्य के विकास का युग है । वास्तव में गद्य वह वाक्यवद्ध विचारात्मक रचना है , जिसमें हमारी चेष्टाएँ , हमारे मनोभाव , हमारी कल्पनाएँ और हमारी चिन्तनशील मनः स्थितियाँ सुगमतापूर्वक व्यक्त की जा सकती हैं । यही कारण है कि आज गद्य साहित्य सशक्त अभिव्यक्ति के द्वारा विविध विधाओं के माध्यम से अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त करता जा रहा है ।
गद्य के इस आधुनिक स्वरूप के विकसित होने के पीछे उसके विकास को एक लम्बी सतत प्रक्रिया है । हिन्दी गद्य का आदि रूप हमें नाथ साहित्य में प्राप्त होता है । नाथों ने हठयोग तथा ब्रह्मज्ञान की व्याख्या बज भाषा के गद्य रूप में की है । ब्रज भाषा में गद्य की परंपरा विट्ठलनाथ , गोकुलनाथ , नाभादास से होती हुई आधुनिक काल तक आई है । इस दृष्टि से भारतेन्दु युग से पूर्व हिन्दी गद्य के विकास को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है ।
प्रारंभिक काल
ब्रज भाषा के गद्य का प्रारंभिक रूप जैन ग्रंथों में मिलता है । हठ योग तथा ब्रह्मज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली गोरखपंधी पुस्तकों में भी इसका रूप दिखाई पड़ता है । कृष्ण भक्ति से प्रभावित कुछ ग्रंथ इस युग में लिखे गए जिनमें ‘ चौरासी वैष्णवों की वार्ता ‘ , ‘ दो सौ वैष्णवों की वार्ता ‘ आदि उल्लेखनीय हैं ।
विकास काल
खडी बोली के प्रयोग के साथ ही गद्य का विकास देखने को मिलता है । आधुनिक काल में खड़ी बोली में जो रचनाएँ हुई उनका सूत्रपात 19 वीं सदी के प्रारम्भ से होता है । खड़ी बोली की प्रारम्भिक कृतियों के रूप में मुंशी सदासुख लाल की ‘ सुख सागर ‘ , इंशा अल्ला खाँ की’ रानी केतकी की कहानी ‘ , लल्लू लाल की प्रेमसागर और सदल मित्र को ‘ नसिकेतोपाख्यान ‘ आदि महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं । साहित्य के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का आगमन एक महत्वपूर्ण घटना है । इनकी सबसे बड़ी देन है – हिन्दी को परिनिष्ठित रूप प्रदान करना । इस युग में सांस्कृतिक जागरण की एक लहर दौड़ चुकी थी । शिक्षित समाज पर युगीन परिस्थितियाँ प्रभाव डाल रहीं थीं । इस समय भारतेंदु का एक मंडल तैयार हुआ । इसमें प्रतापनारायण मिश्र , बालकृष्ण भट्ट , चौधरी बदरीनारायण प्रेमघन , श्री जगमोहन सिंह , श्रीनिवास दास , अम्बिकादत्त व्यास , राधाचरण गोस्वामी , मोहन लाल , विष्णु लाल पंड्या , तोताराम , काशीनाथ खत्री . राधाकृष्णदास , कार्तिकप्रसाद खत्री आदि सम्मिलित थे ।
भारतेंदु के बाद हिन्दी गद्य को सुव्यवस्थित और व्याकरण सम्मत बनाने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का विशेष योगदान है । उन्होंने ‘ सरस्वती ‘ पत्रिका के माध्यम से भारतेंदु के कार्य को द्रुतगति से आगे बढ़ाया । उनके समय तक हिन्दी गद्य पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था और विभिन्न विधाओं में प्रौढ़ रचना भी प्रारंभ हो गई थी ।