बालकृष्ण भट्ट भारतेंदु युग के प्रतिनिधि निबंधकार हैं जिनके निबंध लेखन में इस युग की सर्वाधिक सृजनात्मक प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है । प्रस्तुत निबंध भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिन्दी को बाल्यकालीन अवस्था के बावजूद हिन्दी गद्य के सृजनात्मक प्रयोग का प्रारंभिक एवं प्रतिनिधि उदाहरण है । इस निबंध में तत्कालीन हिन्दी गद्य की वैचारिक सशक्तता एवं भाषिक विकास को देखा जा सकता है । इस निबंध में भारतेंदुयुगीन नवजागरण की चेतना सर्वत्र अंतव्याप्त है । इस निबंध के संवेदनात्मक पक्ष को निम्नांकित विदुओं में रखा जा सकता है.
इस निबंध की संवेदना
इस निबंध की संवेदना पर भारतेंदुयुगीन नवजागरण की पूरी छाप मौजूद है । इसमें साहित्य को व्यक्ति के संदर्भ में न देखकर जनसमूह के हृदय के विकास के संदर्भ में देखा गया है- “ प्रत्येक देश का साहित्य उस देश के मनुष्यों के हृदय का आदर्श रूप है । जो जाति जिस समय जिस भाव से परिपूर्ण या परिप्लुत रहती है , वे सब उसके भाव उस समय के साहित्य की समालोचना से अच्छी तरह प्रगट हो सकते हैं । इसलिये साहित्य यदि जन – समूह ( Nation ) के चित्त का चित्रपट कहा जाए तो संगत है । “
विभेदीकरण
भट्ट जी साहित्य को इतिहास से अलग करते हैं । यह विभेदीकरण प्रायः वैसा ही है जैसा प्रेमचंद के यहाँ किया गया है । प्रेमचंद का प्रसिद्ध विचार है कि इतिहास में नाम , तिथियाँ , घटनाएँ सच होती हैं किंतु बाकी सब झूठ जबकि साहित्य में नाम , तिथियाँ , घटनाएँ झूठ होती हैं , बाकी सब सच । भट्ट जी कहते हैं- ” किसी देश का इतिहास पढ़ने से केवल बाहरी हाल हम उस देश का जान सकते हैं पर साहित्य के अनुशीलन से कौम के सब समय – समय के आभ्यन्तरिक भाव हमें परिस्फुट हो सकते हैं । ”
बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य को जनसमूह के हृदय का विकास मानते हुए वैदिक साहित्य से लेकर भारतेंदुयुगीन गद्य साहित्य तक पर विचार किया है जो इस प्रकार है
वैदिक साहित्य के विश्लेषण से बात
भट्ट जी ने वैदिक साहित्य के विश्लेषण से बात आरंभ की । हम जानते हैं कि वैदिक साहित्य में प्राकृतिक शक्तियों को ईश्वर मानकर उनकी प्रार्थना में ऋचाएँ रची गई हैं । भट्टजी लिखते हैं “ प्रातः काल उदयोन्मुख सूर्य की प्रतिभा देख उनके सीधे – सादे चित्त ने बिना कुछ विशेष छानबीन किये इसे अज्ञात और अजेय शक्ति समझ लिया । वायु जब प्रबल वेग से बहने लगी तो उसे भी एक ईश्वरीय शक्ति समझ उसको शांत करने को वायु की स्तुति करने लगे इत्यादि । वे ही सब ऋक् और साम की पावन ऋचाएँ हो गईं । “
आर्यों के ईश्वर विषयक चिंतन
उपनिषद साहित्य को भट्ट जी आर्यों के ईश्वर विषयक चिंतन का परिणाम मानते हैं ।
सामाजिक व्यवस्था की उपज
स्मृति साहित्य को भट्टजी उस सामाजिक व्यवस्था की उपज मानते हैं जिसमें ‘ सबों को एकता के सूत्र में बद्ध रखने के लिये और अपने – अपने गुण कर्म से चल – विचल हो सामाजिक नियमों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचाए ‘ जैसी स्थिति की आवश्यकता महसूस की गई । स्पष्टत : यह मौर्योत्तर सामाजिक स्थिति को संकेतित करता है जिसमें मनुस्मृति , याज्ञवल्क्य स्मृति लिखी गईं ।
रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों की व्याख्या
इसके बाद भट्टजी रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों की व्याख्या करते हैं । वे उदाहरण देते हैं कि रामायण उस युग की अभिव्यक्ति हैं जिसमें दो भाई ( राम एवं भरत ) एक दूसरे के लिये सारा राजपाट न्यौच्छावर करने के लिये व्याकुल दिखते हैं । वहीं , महाभारत में उस समाज की स्थिति अभिव्यक्त हुई है जिसमें दो भाइयों के कुलों का पारिवारिक स्वार्थ इस हद तक हो गया है कि बिना युद्ध के वे सुई के अग्रभाग के बराबर जमीन भी नहीं सौंपेंगे ।
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