भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ( Indian National Movement ) : 1857 के पहले के प्रमुख विद्रोह

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ( Indian National Movement ) : 1857 के पहले के प्रमुख विद्रोह कौन कौन से थे और इनका हमारी आजादी में क्या महत्व है आइये जानते हैं।

सन् 1857 ई . से पूर्व का काल भारतीय इतिहास में साम्राज्य विस्तार का काल रहा है । ईस्ट इण्डिया कम्पनी ( 1600 ई . ) के आगमन का प्रारम्भिक उद्देश्य यद्यपि व्यापार था , परन्तु बाद में इसका एकमात्र उद्देश्य हो गया अधिकाधिक लाभ कमाना एवं इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तारीकरण अपने उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु कम्पनी ने शोषण की विविध अमानवीय नीति अपनाई । इन अमानवीय नीतियों के कारण धीरे – धीरे भारतीय जनता में असंतोष व्याप्त होता गया । अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति व्याप्त असंतोष के बावजूद सन् 1857 ई. के पूर्व कोई व्यापक एवं दीर्घकालिक विद्रोह नहीं हो सका । फिर भी सन् 1857 के पूर्व अनेक उल्लेखनीय क्षेत्रीय संघर्ष हुए । इन क्षेत्रीय संघर्षों में सैन्य विद्रोह के साथ ही साथ किसान व जनजातीय आन्दोलन भी हुए । इन क्षेत्रीय संघर्षों ने सन् सत्तावन के विद्रोह का मार्ग प्रशस्त किया ।

सैनिक विद्रोह – Military revolt

1857 से पूर्व के यह सैनिक विद्रोह अंग्रेज सैन्य अधिकारियों के अनुचित व्यवहार , उत्पीड़न तथा सेवा शर्तों , वेतन एवं भत्ते में जातीय आधार पर किए गए भेदभाव के कारण हुए थे । इन विद्रोहों में 1764 का विद्रोह , बेल्लोर का 1806 का विद्रोह , 1825 का असम तोपखाना का विद्रोह , शोलापुर का 1838 और गोविन्दगढ़ का 1849-50 का विद्रोह मुख्य हैं । 

विविध जनजातीय व लोकप्रिय आन्दोलन – Miscellaneous Tribal and Popular Movements

ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष करने की यह परम्परा सेना तक ही सीमित नहीं थी । किसानों व जनजातियों ने भी साम्राज्यवाद के विरुद्ध हथियार उठाए थे , प्रमुख किसान व जनजातीय संघर्ष इस प्रकार थे –

( 1 ) पागलपंथी तथा फरायजी विद्रोह ( Insane and Faerie Rebellion )

एंगिल्स ने जर्मनी के कृषक संघर्षों का अध्ययन करते समय इस तथ्य को रेखांकित किया है कि वर्गीय चेतना के अभाव में किसान संघर्ष धर्म के आवरण में लड़े जाते हैं । यह तथ्य बंगाल में भी देखने को मिलता है । संन्यासी आन्दोलन की तरह पागलपंथी और फरायजी विद्रोह भी किसानों के वे सामाज्यवाद सामन्तवाद विरोधी संघर्ष थे जिन्हें धार्मिक सम्प्रदायों के नेतृत्व में लड़ा गया ।

पागलपंथी सम्प्रदाय की स्थापना करम शाह के द्वारा की गई थी । उसका कार्यक्षेत्र मुख्यतः मैमन सिंह जिला का इलाका था । उसके अनुयायी हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे । उसने अपने सम्प्रदाय को पागलपंथ का नाम दिया था । 19 वीं सदी के आराम में मैमन सिंह के इलाके में एक ओर तो जमींदारों में जमींदारी की सीमाओं को लेकर झगड़े चल रहे थे , दूसरी ओर किसानों पर लगान का बोझ बढ़ता जा रहा था । 

1820 में हाथीखेड़ा में जमींदारों ने किसानों से बेगार लेना आरम्भ कर दिया जिसके विरोध में किसानों ने हाथीखेड़ा विद्रोह किया , लेकिन इस विद्रोह से जमींदारों ने कोई भी सबक नहीं सीखा तथा बर्मा युद्ध के समय सड़क निर्माण हेतु पुनः बेगार प्रथा का सहारा लिया गया । 

किसानों ने भी पहले ही की तरह विरोध का निश्चय किया । उन्होंने करमशाह के पुत्र टीपू को अपना नेता चुना । आरम्भ में किसानों के क्रोध का निशाना जमींदार बने जिनके ऊपर सशस्त्र हमले किए गए किसानों की चेतना के निम्न स्तर का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वह जमींदारों व अंग्रेजों के गठबन्धन को नहीं पहचान सके तथा जमींदारों के खिलाफ अंग्रेजों की मदद पाने की भी कोशिश की गई । 

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पागलपंथी संघर्ष का पहला दौर 1827 तक चला । उस वर्ष टीपू को कैद कर लिया गया । 1833 में लगान के प्रश्न पर कुछ समय के लिए फिर से पागलपंथियों के नेतृत्व में किसानों से संघर्ष किया , किन्तु उसका कोई ठोस परिणाम नहीं निकला ।

फरायजी सम्प्रदाय की स्थापना शरिय तुल्लाह के द्वारा की गई थी । शरियतुल्लाह फरीदपुर के निवासी थे । यह सम्प्रदाय धार्मिक तथा सामाजिक जीवन में कुछ बुनियादी बदलाव लाने की बात करता था । इस सम्प्रदाय के नेतृत्व में किसानों ने जो संघर्ष किया , वह 1837-38 में आरम्भ होकर 1857 तक चलते रहे । 

फरायजी सम्प्रदाय के मानने वालों पर वहाबी आन्दोलन का भी प्रभाव था तथा वहाबी लोगों की अंग्रेज विरोधी भावना का असर उन पर पड़ा था । बारसाल , जैसोर , पाबना , माल्दा तथा ढाका इस आन्दोलन के मुख्य क्षेत्र थे । आन्दोलन का प्रमुख नेता शरियतुल्लाह का पुत्र दूधू मियां था । वास्तव में संघर्ष की प्रेरणा किसानों ने दूधू मियां से ही प्राप्त की थी ।

बारसाल में 1831 के किसान संघर्ष में जुलाहा टीटू मीर प्रमुख नेता के रूप में उभर कर सामने आया । फरायजी विद्रोहों को जन्म देने वाला एक प्रमुख कारण किसानों को नील व अफीम की खेती करने के लिए मजबूर करने की कोशिश थी । 

इसके साथ ही जमींदारों के द्वारा लगाए गए ‘ दाड़ी कर ‘ जैसे उत्पीड़क करों व उनकी वसूली ने भी किसान असंतोष को पैदा किया था । 1831 , 1837 , 1843 तथा 1847 में फरायजी लोगों के नेतृत्व में किसानों ने संघर्ष किया , किन्तु ब्रिटिश शासन ने इन संघर्षों का आसानी से दमन कर दिया ।

( 2 ) चुआर विद्रोह – Chuar Rebellion

सन् 1764 ई . में चुआर जनजातियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया । चुआर जनजातियों का निवास क्षेत्र मिदनापुर जिला था । इस विद्रोह के नेपथ्य में अकाल , भूमिकर में वृद्धि एवं अन्य आर्थिक कारण थे । चुआर जनजाति के लोगों ने आत्म – विनाश ( Scorched Earth ) की नीति अपनाई तथा दलभूम , कैलापाल , ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं के साथ मिलकर विदोह किया ।

( 3 ) वेलू थाम्पी का साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष – Velu Thampi’s struggle against imperialism

साम्राज्यवाद के विरुद्ध थाम्पी के संघर्ष को पहला राष्ट्रीय संघर्ष ‘ तथा 1857 के महान संघर्ष का पूर्वगामी कहा गया है । वेलू थाम्पी त्रावणकोर राज्य का मंत्री था । आरम्भ में त्रावणकोर राज्य की ईस्ट इंडिया कम्पनी से मित्रता थी तथा टीपू सुल्तान के विरुद्ध , त्रावणकोर ने कम्पनी का साथ भी दिया था । 

जैसा कि वेलू थाम्पी ने 1809 की घोषणा में बताया इस नीति का आधार यह विश्वास था कि ” कम्पनी के लोग ईमानदार तथा मित्रों के प्रति भक्त हैं तथा हमें छलेंगे नहीं । ” किन्तु थाम्पी के शब्दों में ही कुछ ही समय में स्पष्ट हो गया कि ” उनके साथ मित्रता हमारे लिए संकट का स्रोत था । ” थाम्पी का मानना था कि अगर ईस्ट इंडिया कम्पनी को बिना रोक टोक काम करने का अवसर मिलता रहा तो त्रावणकोर के व्यापार पर उनका एकाधिकार स्थापित हो जाएगा , किसानों पर आवश्यकता से अधिक भू – राजस्व लगेगा , भारतीयों का धर्म संकट में पड़ जाएगा तथा राज्य पर उनका सैनिक नियंत्रण स्थापित हो जाएगा । 

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अतः वेलू को पूर्ण विश्वास था कि ” जो कुछ वह करने की कोशिश कर रहे हैं अगर उसका प्रतिरोध इस समय नहीं किया जाएगा तो हमारी जनता को उन कष्टों का सामना करना पड़ेगा जिन्हें मनुष्य सहन नहीं कर सकते हैं । ” वेलू थाम्पी की इस घोषणा का जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा । हथियारबंद लोग हजारों की संख्या में उसके झंडे के नीचे एकत्र हो गए । त्रावणकोर के शासक का भी पूर्ण समर्थन उसे प्राप्त हुआ ।

वेलू थाम्पी को इस संघर्ष में त्रावणकोर के राजा और जनता का ही समर्थन नहीं मिला , अपितु पड़ोस के कोचीन राज्य का भी सहयोग मिला । कोचीन राज्य में वेलू का मित्र पालियाथ आचन ( Paliyath Achan ) मंत्री था वह भी अंग्रेजों की ओर से उत्पन्न संकट के प्रति जागरूक था । 

उसने वेलू का साथ दिया , किन्तु वह अपने विरोध में उतना दृढ़ नहीं था और संघर्ष आरम्भ होने के कुछ समय बाद उसने अंग्रेजों से समझौता कर लिया । वेलू को अंग्रेजों के हाथों पूर्ण रूप से पराजित होना पड़ा । 

बन्दी बनाए जाने के अपमान से बचने के लिए उसने आत्महत्या कर ली । उसके साथियों पर कर्नल मैकाले द्वारा इतने अमानवीय अत्याचार किए । गए कि उसकी निन्दा करने के लिए भारत सरकार को बाध्य होना पड़ा । उत्तरी मालाबार के क्षेत्र में पजहासी के राजा ने कम्पनी के खिलाफ संघर्ष का विगुल बजाया । 

तराई व जंगल का लाभ उठाते हुए वह लम्बे समय तक अंग्रेज सेना को छापामार संघर्ष में फँसाए रहा , किन्तु अन्त में उसे भी पराजित होना पड़ा ।

वेलू थाम्प्ती , आचन तथा पज्।हासी ( Pazhassi ) के यह संघर्ष सामंती वर्ग के नेतृत्व में चलने वाले संघर्ष थे । इन संघर्षों की असफलता का मूल कारण यह था कि अंग्रेजों के मुकाबले संघर्ष करने वालों की सैनिक शक्ति बहुत ही कम थी । 19 वीं शताब्दी के प्रथम दशक के इन असफल प्रयासों के साथ केरल में , सामंती नेतृत्व में साम्राज्यवादी संघर्ष का दौर समाप्त हो गया । 

क्षेत्र के राजा रजवाड़ों ने अनुभव किया कि उनके निहित स्वार्थों की पूर्ति साम्राज्यवाद का विरोध करके नहीं अपितु उसके प्रति भक्त रहकर ज्यादा अच्छी तरह हो सकती है अतः वह अंग्रेजों का निष्ठापूर्वक साथ देने लगे । 

( 4 ) भील विद्रोह – Bhil Rebellion

पश्चिमी तट के खानदेश जिले में रहने वाली भील जनजाति ने 1817 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया । इस विद्रोह की पृष्ठभूमि में कृषि सम्बन्धी यातनाएं तथा ब्रिटिश सरकार से भय रहा । सन् 1825 ई. में सेवाराम के नेतृत्व में भीलों ने पुनः विद्रोह किया । 

ब्रिटिश सूत्रों के अनुसार इस विद्रोह को पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्रिम्बकजी दांगलिया ने प्रोत्साहित किया था । 

( 5 ) हो तथा मुण्डा विद्रोह – 

छोटा नागपुर तथा सिंहभूम की दो जनजातियों — ‘ हो ‘ तथा ‘ मुण्डा ‘ , ने सन् 1820-22 तथा पुनः सन् 1831 में कम्पनी की सेना से टक्कर ली । इन जनजातियों के विद्रोह के परिणामस्वरूप छोटा नागपुर एवं सिंहभूम जिला सन् 1837 ई । तक उपद्रवग्रस्त रहा । 

( 6 ) रामोसी विद्रोह – Ramosi Rebellion

अंग्रेजी प्रशासन पद्धति एवं क्रियाकलापों से अप्रसन्न पश्चिमी घाट के रामोसी जनजाति के लोगों ने सन् 1822 ई. में विद्रोह किया । इस जनजाति के लोगों ने अपने सरदार चित्तर सिंह के नेतृत्व में सतारा के आस – पास का क्षेत्र लूट लिया । यह विद्रोह पुनः सन् 1825-26 में भड़का एवं सन् 1829 तक सम्पूर्ण क्षेत्र में अशांति रही ।

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( 7 ) अहोम विद्रोह ( 1828 ) – Ahom Rebellion

सन् 1828 ई. में असम के अहोम अभिजात्य वर्ग के लोगों ने गोमधर कुंवर को अपना राजा घोषित कर विद्रोह किया । अहोम विद्रोह का तात्कालिक कारण अहोम प्रदेश को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करना था । सन् 1830 में प्रथम अहोम विद्रोह की असफलता के बाद द्वितीय अहोम विद्रोह हुआ ।

( 8 ) वहाबी आन्दोलन ( 1831 ई. ) – Wahabi movement 

इस आन्दोलन के प्रवर्तक रायबरेली के सैयद अहमद ( 1786-1831 ) थे । सैयद अहमद को इस आन्दोलन की प्रेरणा अरब के अब्दुल वहाब व दिल्ली के संत शाह वली उल्ला से मिली । सैयद अहमद इस्लाम में किसी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध थे तथा वे हजरत मुहम्मद के समकालीन इस्लाम धर्म को पुनः स्थापित करना चाहते थे । भारत में इस आन्दोलन का मुख्य केन्द्र पटना था । 

इसके अतिरिक्त हैदराबाद , मद्रास , बंगाल , उ।प्र । तथा बम्बई में इसकी शाखाएं स्थापित हुईं । इस आन्दोलन का उद्देश्य काफिरों के देश ( दार – उल – हर्ब ) को मुसलमानों के देश ( दारुल इस्लाम ) में बदलना था । सन् 1857 के विद्रोह में वहाबियों ने ब्रिटिश विरोधी भावनाओं के प्रसार में स्तुत्य योगदान दिया ।

( 9 ) कोल विद्रोह – Cole Rebellion

सन् 1831 में छोटा नागपुर के कोलों ने विद्रोह किया । इस विद्रोह में लगभग 1000 विदेशी व्यक्तियों को कोलों ने या तो जला दिया या उनकी हत्या कर दी । यह विद्रोह बिहार के रांची , सिंहभूम , हजारीबाग , पलामू तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों तक फैला था । इस विद्रोह का कारण कोलों के मुखिया मुण्डों ( एक जनजाति ) से उनकी भूमि छीनकर मुस्लिम कृषकों एवं सिखों को देना रहा ।

 ( 10 ) खासी विद्रोह ( 1833 ई. ) – Khasi Rebellion

ननक्लों के राजा तिरूत सिंह ने खासी विद्रोह का संचालन किया । कम्पनी ने पूर्व के जैन्तिया तथा पश्चिम में गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर सन् 1833 में अधिकार कर लिया तथा ब्रह्मपुत्र घाटी तथा सिल्हट को जोड़ने हेतु एक सैन्य योजना बनाई । इसके विरोध में खाम्पटी तथा सिंहपो ने विद्रोह किया ।

( 11 ) सतारा विद्रोह – Satara Rebellion

सितम्बर , 1839 में सतारा के राजा प्रताप सिंह के सिंहासनच्युत तथा देशनिष्कासन के फलस्वरूप सतारा विद्रोह हुआ । सन् 1840-41 ई. में इस क्षेत्र में व्यापक दंगे हुए । नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने बहुत से सैनिकों को एकत्र कर बादामी का दुर्ग जीत लिया तथा उस पर सतारा के राजा का ध्वज फहरा दिया । 

( 12 ) संथाल विद्रोह ( 1855-56 ) – Santhal Rebellion

सिंधु तथा कानू के नेतृत्व में राजमहल ( बिहार ) जिले के संथालों ने सन् 1855 में विद्रोह किया । संथाल विद्रोह के कारणों में भूमिकर अधि कारियों का दुर्व्यवहार , पुलिस – दमन , जमींदारों एवं साहूकारों की वसूली उल्लेखनीय है । विस्तृत सैन्य कार्यवाही के पश्चात् सन् 1856 ई. में अंग्रेजों ने स्थिति पर नियंत्रण स्थापित किया । 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को सशक्त बनाने में विविध सैन्य , जनजाति व कृषक विद्रोहों का विशिष्ट स्थान है । सन् सत्तावन का संघर्ष साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों की इस परम्परा का अंग तथा उसकी उच्चस्तरीय अभिव्यक्ति था ।

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