प्रस्तावना
घने वृक्षों के समुदाय को देखकर वह यकायक चिल्ला उठी- ” आह कितना मनोरम दृश्य है ? ” वृक्षों की भीड़ को देखकर मन हरा – भरा हो जाता है , जबकि मनुष्यों की भीड को देखकर जी घबरा उठता है और हम भाग कर खुली हवा में जाना चाहते हैं । आप तुरन्त सहमति प्रकट करते हुए कहेंगे कि प्रकृति का उन्मुक्त वातावरण किसको नहीं सुहाता है ? प्रकृति के वन , वृक्षों , उन पर लगे हुए फूलों की सुगंध , उन पर बैठे पक्षियों का कलरव मन को निहाल कर देता है । ऐसा प्रतीत होता है कि मानव साहचर्य की अपेक्षा प्रकृति का साहचर्य हमारे स्वभाव के अधिक अनुकूल है । हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है जो जीवन में का स्थान है । हम जब बाहर की घुटन , ऊब , दुर्गन्ध एवं कुण्ठा भरे जीवन से ऊब जाते हैं , तब खुली हवा पाने के लिए किसी वन , उपवन अथवा उद्यान में जाना चाहते हैं , उसी प्रकार जीवन की विषमताओं एवं विडम्बना से युक्त काव्य की ऊब एवं घुटन मिटाने के लिए हम आदर्शवाद की ओर देखते हैं ।
प्रकृति का अनुकरण
कहने का तात्पर्य यह है कि माता की गोद की भाँति प्रकृति हमारे लिए सुख – चैन – प्रदाता एवं संकटमोचन क्रोड का विधान करती है । वह सचमुच परमात्मा की कलाकृति है । उसी ने मानव को कला की प्रेरणा प्रदान की है । प्लेटो , अरस्तू आदिक प्राचीन दार्शनिक काव्यशास्त्रियों ने कला को प्रकृति का अनुकरण बताया है । प्रकृति में सुनाई देने वाली विविध ध्वनियों के आधार पर ही संगीत के सप्तस्वरों का विधान एवं नामकरण किया गया है । कवीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में ” प्रकृति ईश्वर की शक्ति का क्षेत्र है और जीवात्मा उसके प्रेम का क्षेत्र है । ”
प्रकृति से अनुशासन
प्रकृति में प्रत्येक कार्य एक विशेष नियमानुसार होता है । हमारा समस्त भौतिक विज्ञान उसके नियमों के उद्घाटन का विनम्र प्रयास है , तथा मानव की आचार संहिताएं उसकी नियमित एवं अविचल प्रक्रियाओं के साक्षात्कार के महोत्सव का दिव्य संगीत हैं । प्रकृति हमें अनुशासन में रहने का पाठ पढ़ाती है । प्रकृति एक अनुशासन में चलती है और एक शिक्षिका की भाँति मानव को भी अनुशासन की शिक्षा देती है । ऋतुचक्र एक निश्चित अनुशासन का अनुवर्तन करता है । ‘ हुकुम बिना न झूले पाता ‘ वाली उक्ति प्रकृति में व्याप्त अनुशासन की ही ओर इंगित करती है ।
प्रकृति के नियम
प्रकृति में शून्य के लिए स्थान नहीं हैं । जो दोगे , उसका स्थान उसी वस्तु से भर जाएगा जो तुमने दी है । महात्मा कबीर का कथन द्रष्टव्य है–
प्रकृति का एक सामान्य नियम है कि प्रकृति के नियमों का पालन करके हम उस पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । नदी के ऊपर पुल बनाने के लिए आवश्यक है कि हम उसके प्रवाहयुक्त जल को रोकें नहीं अपितु उसको बहने के लिए अन्य मार्ग का निर्माण कर दें । मानव – जीवन में भी हम देखते हैं कि विरोध एवं संघर्ष की अपेक्षा , प्रेम , सहयोग एवं सहयोग का मार्ग समरसता का हेतु बनता है । जब कभी और जहाँ कहीं , मनुष्य प्रकृति पर शक्ति के बल पर अधिकार करने का प्रयत्न करता है अथवा उसके विनाश का मार्ग अपनाता है , तब उसको मुँह की खानी पड़ती है और संकटों का सामना करना पड़ता है । प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । वर्तमान में ऋतु – विपर्यय की घटनाएं , मौसम की भविष्यवाणियों की निरर्थकताएं यह सिद्ध करती हैं कि मानव के कार्यकलाप प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जा रहे हैं । उसने समस्त प्राकृतिक वातावरण एवं पर्यावरण को प्रदूषण एवं विनाशलीला से भर दिया है । प्रकृति बार – बार कहती है कि बाह्य एवं अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए तथा जीवन को त्रासदी मुक्त करने के लिए नियम – पालन एवं अनुशासन के मार्ग पर चलने का अभ्यास करो । किसी ने ठीक ही कहा है कि शक्ति उन्हीं को प्राप्त होती है जो प्रकृति के क्षेत्र में साधना करते हैं , जो बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करते हैं , जो नवीन मर्यादाओं की स्थापना के पूर्व स्थापित मर्यादाओं के पालन में सक्षम बनते हैं । लीला पुरुषोत्तम को पूर्व जन्म में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में अनेक वर्षों तक तपस्वी का वेश धारण करना पड़ा था ।
सूर्योदय एवं चन्द्रोदय से लेकर फूलों फलों के विकास तक की समस्त प्रक्रियाएँ । विशिष्ट नियमों के अन्तर्गत कार्य करती हैं । ये नियम शाश्वत एवं अविचल हैं । प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव के जीवन के संदर्भ में भी इसी कोटि के कतिपय नियम हैं , जो मनुष्य उनको जानता है और मानता है , उसको विश्व जान लेता है और प्रेरक रूप में उसको मान्यता प्रदान करता है । अंग्रेजी के विश्व विश्रुत नाटककार कवि शैक्सपीयर ने लिखा है कि , The poem hangs on the berry bush , when comes the poet’s eye अर्थात् कवि की आँख को झरबेरी की झाडी में कविता के दर्शन होते हैं ।
प्रकृति अपरिमित ज्ञान का भण्डार
आप समझ लीजिए कि प्रकृति अपरिमित ज्ञान का भण्डार है , उसके पत्ते – पत्ते पर शिक्षापूर्ण पाठ हैं , उसके कण – कण में प्रेरणा समाहित है । उनका साक्षात्कार करने के लिए बाहर के चर्म चक्षु नहीं , भीतर की हृदय की आँखें चाहिए । प्रकृति अपना द्वार उसके लिए खोलती है जो धैर्यपूर्वक अनवरत साधना करते हैं ।
कवि रहीम ने कहा है —
आप धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य – पथ पर चलते रहिए । परिणामों के प्रति उतावले मत बनिए । सफलता आपको अवश्य मिलेगी ।
” प्रकृति के चरण – चिह्नों पर चलो । धैर्य उसका रहस्य है । ”
( इमर्सन )
प्रकृति से प्रेरणा
आपने समुद्र – तट के दर्शन अवश्य किए होंगे । समुद्र – तट पर किसी स्थान पर समुद्र की ओर निकलती हुई चट्टान को ध्यान से देखिए । विशाल समुद्र की लहरें व्यालों की तरह फन फैलाए हुए उससे टक्कर मारती हैं और छितराकर समुद्र में विलीन हो जाती हैं , परन्तु दृढ़ चट्टान अपने स्थान पर ज्यों की त्यों अप्रभावित बनी रहती है । साध्य जिज्ञासु को वह यह पाठ पढ़ाती रहती है कि अपने स्थान पर , अपने कर्तव्य – पथ पर दृढ़तापूर्वक जमे रहो । विघ्न – बाधाएं कितनी भी भयंकर एवं वृहदा कार हों , आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगी और स्वयं ही विलीन हो जाएगी ।
इसी प्रकार नदी , नाले , झरने आदि अपने किनारे के छोटे एवं दुर्बल लता – गुच्छ को नष्ट करते रहते हैं , परन्तु सुदृढ वृक्षों को वे बाढ आने पर भी नष्ट नहीं कर पाते हैं । प्रकृति का मन्तव्य स्पष्ट है – विघ्न – बाधाओं का सामना धैर्यपूर्वक सहन करो , दृढता एवं धैर्य बनाए रखो । सफलता क्यों नहीं मिलेगी ।
उपसंहार
आप विश्वासपूर्वक प्रकृति के निज जाइए और उसका सदेश सुनिए । आप देखेंगे कि आपको अपने कार्य एवं लक्ष्य के प्रति नवीन दिशा एवं दृष्टि प्राप्त होगी । अपेक्षित है दृढ़ता , धैर्य और लक्ष्य के प्रति समर्पण भाव । प्रकृति में न धोखा है और न पक्षपात । उसके द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हुए हैं । प्रकृति में कहीं भी विकृति नहीं होती है ।
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