जीवन – पद्धति को लोकतान्त्रिक कैसे बनाएं [ how to Make the way of life democratic ]

जीवन – पद्धति को लोकतान्त्रिक कैसे बनाएं [ how to Make the way of life democratic ]

स्वतन्त्रता के 70 वर्ष बाद भी हम लोकतन्त्र की भावना को अपने जीवन की प्रेरणा शक्ति नहीं बना पाए हैं । साम्प्रदायिक दंगे , अपहरण , बलात्कार , रालोकीतिक हत्याएं , आतंकवादी घटनाएं आदि हमारे प्रजातन्त्र के लिए कलंक बन गई हैं । ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमने अपने प्रजातन्त्र को शैतान को सुपुर्द कर दिया है तथा स्वयं संत्रास और अरक्षा का जीवन जीने को विवश हो गए हैं । लोकतन्त्र के नाम पर हम लोक – लोक की बोलती बन्द करने पर आमादा हैं । निश्चय ही यह चिन्ता का विषय है कि हमारा लोकतन्त्र वास्तव में संकटग्रस्त है तथा इसका भविष्य उज्जवल दिखाई नहीं पड़ता । यह स्थिति बदलनी चाहिए 

लोकतंत्र सबका शासन

लोकतन्त्र लोकता का ( सबका ) शासन होता है । उसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने को दूसरे के समान पद और शक्ति वाला समझता है । इसलिए लोकतन्त्र में यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का अनुशासन माने , परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझ लेना चाहिए कि लोकतन्त्र अनुशासनहीनता की अवस्था है अथवा वह एक ऐसी शासन पद्धति है जिसमें अनुशासन का कोई स्थान ही नहीं होता है । 

अपना संगठन और शासन 

लोकतन्त्र वस्तुतः एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति स्वयमेव इतना अनुशासित होता है कि शासन को किसी प्रकार के अनुशासन की व्यवस्था करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है । लोकतन्त्र के इसी आदर्शस्वरूप को पूज्य महात्मा गांधी ने ‘ रामराज्य ‘ कहा है , उनके द्वारा परिकल्पित ‘ राम – राज्य ‘ एक ऐसी शासन व्यवस्था है जो कम – से – कम शासन करती है । सी.ई. हयूजेज के शब्दों में ” प्रजातन्त्र का अपना संगठन और शासन होना चाहिए , परन्तु व्यक्तिगत स्वतन्त्रता ही उसका प्राण है । ” इस सन्दर्भ में हम यह समझ लें कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ उछृखलता अथवा मनमाना व्यवहार नहीं है । हमारी तरह अन्य व्यक्तियों को भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता प्राप्त है । अतएव व्यक्तिगत स्वतन्त्रता इस प्रकार आत्मानुशासित हो कि वह अन्य व्यक्तियों की स्वतन्त्रता में बाधक न बने । व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का आदर्श रूप यह है कि वह अन्य व्यक्तियों की स्वतन्त्रता के निर्वाह की साधिका बने । हम अगर अपनी ही बात कहते रहेंगे , अपनी इच्छानुसार ही व्यवहार करते रहेंगे , तो हम उछृखलता अथवा अराजकता के हेतु बन जाएंगे । स्वतन्त्रता का मूल तत्व यह है कि हम प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार प्रकट करने और सामाजिक आचरण करने की स्वतन्त्रता के पक्षधर बने , व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को लक्ष्य करके महात्मा गांधी ने लिखा है कि ” प्रजातन्त्र का अर्थ मैं यह समझता हूँ कि था कि 
इसमें नीचे – से – नीचे और ऊँचे – से – ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिले । हमारी भी यही धारणा है कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के विकसित होने के लिए सद्भावना का वातावरण आवश्यक है । यह तभी सम्भव है । जब प्रत्येक व्यक्ति का श्रेष्ठतम रूप उभर कर अभिव्यक्त हो सके तथा प्रत्येक व्यक्ति को असमान विकास के लिए समान अवसर उपलब्ध हों , चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का कथन द्रष्टव्य है कि ” मैं प्रजातन्त्र में इसलिए विश्वास करता हूँ क्योंकि वह प्रत्येक मनुष्य की शक्ति को उन्मुक्त करता है । ” इस तथ्य से तो सब सहमत होंगे कि प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र ने साधारण व्यक्ति को , पहले से कहीं अधिक गौरव प्रदान किया ।

भ्रष्टाचार वस्तुतः शिष्टाचार

 हमारे देश में आज भ्रष्टाचार वस्तुतः शिष्टाचार बन गया है । हम लोग छोटी – छोटी सुविधाओं के लिए लोकतन्त्रात्मक मूल्यों के साथ समझौता करते हुए दिखाई देते हैं । हमारे लोकनायक अपनी इच्छा के सामने वैधानिक बाधा को खड़ी देखकर संविधान में संशोधन कर लेते हैं । 

संविधान और स्वतन्त्रता 

लोकतन्त्र वस्तुतः मानवीय मूल्यों का पर्यायवाची होता है , परन्तु हमने उसको अपने सेवक का स्थान प्रदान कर रखा है । संविधान और स्वतन्त्रता के साथ समझौता करने वाले व्यक्ति न तो स्वतन्त्रता के योग्य होते हैं और न सुरक्षा के । स्पष्ट है कि हम अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारने वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं । विधि और विधान की अवज्ञा करने के कारण हमारे भीतर अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस नहीं रह गया है । हमारा लोकतन्त्र वस्तुतः भीड़तन्त्र बनता जा रहा है , हमने अच्छे कानून तो बना लिए हैं , परन्तु कानून को मानने और मनवाने वाले अच्छे आदमियों का अकाल पड़ गया है । यूरोप के दार्शनिक पितामह विचारक अरस्तू ने ठीक ही कहा
It is better for a city to be governed by a goodman than even by good laws ” अर्थात् अनेक अच्छे कानूनों की अपेक्षा केवल एक अच्छे व्यक्ति द्वारा शासित होना कहीं अधिक अच्छा होता है ,

विंस्टन चर्चिल की आशंका

 भारत के पूर्ण स्वतन्त्र होने के पूर्व इंगलैण्ड के प्रधानमन्त्री श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि ” अंग्रेज तो भारत को छोड़ देंगे , परन्तु यहाँ के निवासी अपना शासन कुछ दिन भी नहीं चला सकेंगे ” और उसका कारण बताते हुए चर्चिल ने कहा था , कि ” यहाँ की लोकता जो अनेक धर्म , मजहब जाति – पाति में बँटी हुई है , वह सत्ता पर अपना अधिकार जमाने के लिए आपस में लड़ेगी , जिससे यह देश पहले की तरह छोटे – छोटे रजवाड़ों में बँट जाएगा , जिसका लाभ उठाकर कोई बाहरी शक्ति फिर यहाँ अपना अधिकार जमा लेगी । ” चर्चिल के उक्त वक्तव्य पर भारतवासियों ने बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी , परन्तु अब वस्तुस्थिति बहुत कुछ चर्चिल की आशंका के अनुरूप दिखाई देती है । 

सुदृढ़ रामराज्य के तीन स्तम्भ

हमें समझ लेना चाहिए कि सुदृढ़ रामराज्य के तीन स्तम्भ होते हैं – साधुमत , लोकमत और संविधान । रामचरितमानस में ऋषि वशिष्ठ प्रजानन से यही कहते हुए दिखाई देते हैं कि ” तुम भरत की बात पूरे ध्यान एवं सम्मान के साथ सुनने के उपरान्त करब साधुमत , लोकमत , नृपनय निगम निचोरि ” 

लोकतन्त्रात्मक पद्धति में साधुमत उपेक्षित

हमारी प्रस्तुत लोकतन्त्रात्मक पद्धति में साधुमत सर्वथा उपेक्षित है , संविधान सर्वथा वोट की रालोकीति का मुखापेक्षी बन गया है । लोकमत अनेक कारणोंवश पंगु होकर पशु बल एवं धन बल की बैशाखी पर चल रहा है । 

सच्ची स्वतन्त्रता

हमें स्वविवेक के अनुसार यह विचार करना चाहिए कि हम स्वतन्त्र नागरिक की भाँति किस प्रकार आचरण कर सकते हैं , सच्ची स्वतन्त्रता तभी सम्भव है जब हम प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता का अधिकारी समझें और सच्चे मन से विचार स्वातन्त्र्य को मान्यता प्रदान करें , लोकतन्त्र का जीवन जीने के लिए हमें बेंजामिन फ्रैंकलिन का यह कथन हृदयंगम करना चाहिए- ” यद्यपि मैं उससे सहमत नहीं हूँ , जो तुम कहते हो , तथापि तुम्हारे इस प्रकार कहने के अधिकार के लिए मैं निरन्तर संघर्ष करूँगा । ” 

सार

शासन के अभाव का नाम अराजकता है । शासन की आवश्यकता के अभाव का नाम लोकतन्त्र है । आत्म – अनुशासित लोकतन्त्र ही हमारी जीवन पद्धति का मूल मन्त्र होना चाहिए । 
( समाप्त )

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