रावण द्वारा अपने शत्रु के धर्माचरण की प्रशंसा सुनकर मन्त्री स्तब्ध रह गया । उक्त कथन द्वारा दो बातें स्पष्ट हैं रावण गुणवान की कद्र करना जानता था और साथ ही अपने दोषों के प्रति जागरूक था , परन्तु वह अपने अहंकार के कारण विवश था । उसकी प्रवृत्ति सम्भवतः इस प्रकार की थी कि ” मैं धर्म को जानता परन्तु उसके प्रति मेरी प्रवृत्ति नहीं होती है ।
मैं अधर्म को जानता हूँ , परन्तु उससे निवृत्ति नहीं होती है । ” मन्तव्य स्पष्ट है । उसके मन मानस में विवेक का अंश सर्वथा तिरोहित हो गया था और उसका सम्पूर्ण हृदयाकाश अहंकार द्वारा तमसाछिन्न था । फलतः उसकी इच्छा शक्ति का शिवपक्ष सर्वथा दुर्बल हो गया था और वह सब कुछ समझते हुए भी नासमझ की भाँति आचरण करने के लिए विवश था ।
वाल्मीकि प्रणीत रामायण में इस प्रसंग का सटीक उद्घाटन किया गया है । रावण श्रीराम के उदात्त व्यक्तित्व को पहचानता था । कई अवसरों पर । वह राम के ब्रह्मत्व के प्रति अपना विश्वास प्रकट करता हुआ भी देखा जाता है । जो भी हो शत्रु की सदाशयता के प्रति आस्था यह प्रकट करती है कि सच्ची गुणग्राहकता और उसकी साहसपूर्ण अभिव्यक्ति बड़प्पन की पहचान है । इसी के साथ श्रीराम के प्रति रावण का कथन यह प्रमाणित करता है कि उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक है , उसी की महिमा सार्थक है , जिसकी प्रशंसा शत्रु भी करे ।
साहस और देशभक्ति
स्वतन्त्रता की लड़ाई में शहीद होने वाले अनेक वीरों और वीरांगनाओं के साहस और देशभक्ति के प्रति अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने आदरभाव प्रकट किया था और उन्हें सलाम किया था । आज भी हमारे देश में ऐसे नेता हैं जिनकी ईमानदारी के प्रति उनके कट्टर विरोधी भी उँगली नहीं उठाते हैं
मतभेद या विरोध
मतभेद और विरोध होना एक बात है और मतभेद या विरोध में विवेक खो देना बिल्कुल दूसरी बात है । मतभेद अथवा विरोध करने वाला विपक्षी को अपनी बात करने का उतना ही अधिकारी मानता है , जितना वह स्वयं को मानता है , तो यह सहिष्णुता तथा प्रगति का सूचक है । मतभेद जन्य विरोध यदि व्यक्तिगत द्वेष एवं वैमनस्य का कारण बन जाता है , तो वह पतन एवं विनाश के खतरे की घण्टी समझी जानी चाहिए । हमारे नवयुवक / युवतियाँ यदि इस रहस्य को समझ सकें , तो हम समझते हैं कि हमारा समाज अनेक विषमताओं एवं समस्याओं से मुक्त हो जाए ।
अवगुणों को दूर करने के प्रति सचेष्ट
विपक्षी के गुणों का सम्मान करने के साथ हमें अपने अवगुणों को दूर करने के प्रति सचेष्ट होना चाहिए । ऐसा न कर सकने के कारण ही बड़ी – बड़ी हस्तियाँ और शक्तियाँ मिटती रही हैं । विपक्षी के गुणों के प्रति आदरभाव रखने के अनेक उदाहरण हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के मध्य देखने को मिलते हैं । सैद्धान्तिक मतभेद होना एक बात है और मतभेद होने पर गुणों अथवा अच्छाइयों की अवज्ञा करना सर्वथा भिन्न बात है । प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ वाल्टेयर ने इस सन्दर्भ में एक बार इस आशय का महत्वपूर्ण कथन किया था कि ” यद्यपि मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ , परन्तु तुम्हारे द्वारा अपना मत स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करने के अधिकार के लिए मैं आजन्म संघर्ष करता रहूँगा ।
समाज का विकास
हम जानते हैं कि गुण – ग्राहकता , सभ्यता एवं सांस्कृतिक विकास की पहचान है । जिस समाज में इसका अभाव होता है , वह समाज नष्ट हो जाता है अथवा कम – से – कम अविकसित बना रहता है । संत कबीर ने इसी तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि जहाँ गुणज्ञ लोग होते हैं , वहाँ गुणवान मनुष्य का बहुत आदर – सत्कार होता है , परन्तु जहाँ गुणज्ञ लोग नहीं होते , वहाँ गुणवान मनुष्य कौड़ी का तीन हो जाता है , अर्थात गुण सर्वथा तिरोहित हो जाता है ,
परन्तु वह सर्वथा नष्ट नहीं होता है । जब भी गुण – ग्राहक प्रकट होते हैं , तब उसका महत्व उजागर होता है । इतना अवश्य है कि सम्बन्धित समाज का विकास पिछड़ जाता है । किसी ने ठीक ही कहा है कि ” गुण ना हिरानौ , गुण – ग्राहक हिरानौ है । ‘
विकास चुनावों तक सीमित
भारत में लोकतन्त्र के वास्तविक स्वरूप का विकास न होने का मुख्य कारण यही है कि यहाँ उसको जीवन – पद्धति न मानकर चुनावों तक सीमित कर दिया गया है। हम लोग मतभेद को मनभेद के रूप में ग्रहण करते हैं तथा लोकन्त्र के मूलभूत अंश सहिष्णुता एवं सद्भाव को सर्वथा उपेक्षित कर देते हैं। हमें स्मरण रखना चाहिए कि व्यक्तित्व विकास का सर्वोत्तम उपाय गुण ग्राहकता है। यदि हम दूसरों से गुणों को ग्रहण नहीं करते हैं, तो हमारे व्यक्तित्व में गुणों का समावेश क्योंकर हो सकेगा ? इसी प्रक्रिया को लक्ष्य करके कहा जाता है कि न कोई तुम्हारा शत्रु है और न मित्र है सब तुम्हारे गुरु हैं।
संसार की प्रत्येक वस्तु एवं संसार के प्रत्येक व्यक्ति में कोई – न – कोई गुण होता है । अतएव हमें प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्ति से कुछ – न – कुछ सीखने का , उसके गुणों को ग्रहण करने का प्रयत्न करना चाहिए । लोक – व्यवहार में कीचड़ अथवा अन्य किसी गन्दी जगह में पड़े हुए सुवर्ण को कोई भी नहीं छोड़ता है । मानव के गुणों को ग्रहण करने के प्रति यदि हमारे भीतर ऐसी ही ललक हो जाए , तो हमारे व्यक्तित्व का और अन्ततः समाज का कितना कल्याण हो जाए ? हम महापुरुषों की इस दृष्टि की कभी उपेक्षा न करें – सफलता का रहस्य निष्कपट गुण – ग्राहकता है ।
अंग्रेज विचारक चार्ल्स श्वेव ने एक स्थान पर लिखा है कि ” मनुष्य के भीतर जो कुछ सर्वोत्तम है , उसका विकास गुण ग्राहकता एवं प्रोत्साहन द्वारा ही किया जा सकता है । ” जो लोग गुण – ग्राहक नहीं होते हैं , वे अपनी ही हानि करते हैं ,
यथा —
हीरा पड़ा बजार में , रहा छार लपटाय ।
बहुतक मूरख चलि गए , पारख लिया उठाय । ( कबीरदास )
उपसंहार
हम चाहते हैं कि हमारे युवक – युवतियाँ हीरे के पारखी बनें और उनकी दृष्टि से किसी का भी कोई गुण न बच सके । वे गुण – ग्राहक भी बनें और स्वयं भी गुणी बनें , यानी कद्रदान बनें और कद्र के काबिल भी बनें । इस सन्दर्भ में दोष – रूपी पानी का त्याग करके गुण – रूपी दूध ग्रहण करने वाले हंस रूपी ज्ञानी की वृत्ति धारण करने का अभ्यास करना होगा ।
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