सूरदास हिंदी के भक्तिकाल के एक महान कवि थे। हिंदी साहित्य में श्री कृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास को हिंदी साहित्य का [सूर्य] माना जाता है। विद्वान इस बात पर मतभेद करते हैं कि सूरदास अंधा पैदा हुए थे या नहीं।
सूरदास का जीवन परिचय – Surdas biography in hindi
सूरदास का जन्म 1478 में रुनकता क्षेत्र में हुआ था। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मानना है कि सूर का जन्म दिल्ली के पास सिही नामक स्थान पर एक गरीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे बहुत विद्वान थे, उनकी चर्चा आज भी लोग करते हैं। वे मथुरा के मध्य में गायघाट पर रहने आए थे। सूरदास के पिता रामदास एक गायक थे। सूरदास के जन्म को लेकर मतभेद है। प्रारंभ में, सूरदास आगरा के पास गायघाट में रहते थे। वहाँ रहते हुए वे श्री वल्लभाचार्य से मिले और उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षा दी और उन्हें कृष्णलीला का श्लोक गाने का आदेश दिया। 1584 ई. में गोवर्धन के पास परसौली गाँव में सूरदास की मृत्यु हो गई।
सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान – sooradaas kee janmatithi aur janmasthaan
सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। “साहित्य लहरी’ सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है –
इसका अर्थ संवत 1607 ईस्वी में माना गया है, इसलिए “साहित्य लहरी” की रचना काल संवत 1607 विक्रमी है। यह ग्रन्थ इस बात का भी प्रमाण देता है कि सूर के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे।
सूरदास का जन्म 1540 ईस्वी के आसपास हुआ था, क्योंकि बल्लभ संप्रदाय में एक मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत की वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए, सूरदास की जन्मतिथि वैशाख शुक्ल पंचमी, संवत 1535 विक्रमी, समीचीन प्रतीत होती है। कई साक्ष्यों के आधार पर, 1620 और 1648 ई. के बीच उनकी पुण्यतिथि मनाई जाती है। रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार सूरदास का जन्म 1540 ईस्वी सन् और मृत्यु वर्ष 1620 ईस्वी के आसपास माना जाता है।
श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।
सूरदास की आयु “सूरसारावली’ के अनुसार उस समय 67 वर्ष थी। उनका जन्म रनकाटा या रेणु (वर्तमान जिला अग्रहारा के तहत) के क्षेत्र में ‘चौरासी वैष्णवन वार्ता’ के आधार पर हुआ था। वह मथुरा और आगरा के बीच गौघाट पर रहता था। । उन्होंने बल्लभाचार्य से वहीं मुलाकात की। “भावप्रकाश में,” सूर का जन्म स्थान सिही नामक गाँव के रूप में वर्णित है। वे एक सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। “आइने अकबरी” (संवत 1653 ई।) और “मुतखबुत-तवारीख” सूरदास के अनुसार अकबर के दरबारी संगीतकारों में सूरदास को माना जाता है।
क्या सूरदास जन्मांध थे ?
सूरदास श्रीनाथ के “संस्कृतवार्ता मणिपाला” के ग्रंथों के आधार पर, श्री हरिरैया के “भाव-प्रकाश”, श्री गोकुलनाथ के “निजवर्त” को जन्म के समय अंधा माना जाता है। लेकिन वर्तमान के अधिकांश विद्वान राधा-कृष्ण के सुंदर चित्रण, विभिन्न रंगों के वर्णन, सूक्ष्म अवलोकन के गुणों के कारण सूर को जनमन्ध नहीं मानते हैं।
श्यामसुन्दर दास ने इस सम्बन्ध में लिखा है – “सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।” डॉक्टर (हजारीप्रसाद द्विवेदी) ने लिखा है – “सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अंधा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।”
सूरदास की रचनाएँ – Sooradas ki rachanayen
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:
(1) सूरसागर – जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
(2) सूरसारावली
(3) साहित्य-लहरी – जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
(4) नल-दमयन्ती
(5) ब्याहलो
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रंथों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।
श्रीकृष्ण जी की बाल-छवि पर लेखनी अनुपम चली।।
सूरसागर का मुख्य वर्ण्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का गान रहा है।
सूरसारावली में कवि ने जिन कृष्ण विषयक कथात्मक और सेवा परक पदों का गान किया उन्ही के सार रूप में उन्होंने सारावली की रचना की है।
सहित्यलहरी मैं सूर के दृष्टिकूट पद संकलित हैं।
सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ
1. सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है।
2. सूर ने मुख्य रूप से वात्सल्य, श्रृंगार और शांता रस को अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा की मदद से कृष्ण के बचपन को एक सुंदर, रसीला, जीवंत और मनोवैज्ञानिक बताया है। चपलता, प्रतिस्पर्धा, आकांक्षा, बच्चों की आकांक्षा को चित्रित करते हुए, एक बच्चे जैसी छवि को दुनिया भर में दिखाया गया है। बाल कृष्ण के प्रत्येक प्रयास के चित्रण में, कवि ने अद्भुत बुद्धिमत्ता और सूक्ष्म अवलोकन दिखाया है।
सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।
3. जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।
4. सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
5. सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से आगे बढ़ जाती है-
6. सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं।
7. प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है।
8. सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।
9. सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं।
10. सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।
11. सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।
12. सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।
13. सूर का काव्य भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है, कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है-
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।
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