सामान्य कानून प्रणाली क्या हैं ? सामान्य कानून का अर्थ क्या होता है? [ What is common law system ]

सामान्य कानून प्रणाली क्या हैं ? सामान्य कानून ' का अर्थ क्या होता है? [ What is common law system ]

COMMON LAW SYSTEM: क्या आप ‘ सामान्य कानून ‘ के अर्थ को जानते हैं ? यह प्रश्न इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है कि जब यह प्रश्न एक साधारण व्यक्ति से पूछा जाएगा तो उसका उत्तर यही होगा कि सामान्य कानून वह है जा सामान्य रूप से लागू होता है । किन्तु सामान्य कानून का यह अर्थ नहीं है ” सामान्य कानून ” विश्व की विभिन्न कानून प्रणालियों के एक परिवार का नाम है जो छोटे अंतरों के साथ समान गुणों और विशेषताओं वाली कानून – प्रणाली का अनुसरण करते हैं । 

सामान्य कानून के परिवार के राष्ट्र – सदस्यों द्वारा प्रयोग किए जाने वाली समान विशेषताएं हैं : 

  • उच्चतर न्यायालयों या अधिकरणों द्वारा दिए गए निर्णयों का प्राधिकार 
  • न्यायिक संस्थानों की संरचना 
  • न्यायालय प्रक्रियाओं को विरोधात्मक प्रणाली , और न्यायाधीश की भूमिका , तथा 
  • सक्षम प्राधिकारणों द्वारा परित किए गए अधिनियम , संविधि , तथा अन्य विधान । 

सामान्य कानून प्रणाली ने विश्व की अनेक कानूनी प्रणालियों के विकास को प्रभावित किया है , जैसे भारत , इंग्लैंड , यू.एस.ए. , कनाडा तथा आस्ट्रेलिया । 

वास्तव में , सामान्य कानून को उत्पत्ति इंग्लैंड में मानी जाती है , इसलिए जहां कही ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की वहां सामान्य कानून लागू किया गया था । हम आगामी पैराग्राफों में इस कानूनी प्रणाली की चार समान विशेषताओं पर चर्चा करेंगे व उनको समझने का प्रयास करेंगे ।

table of contents ( TOC)

( 1 ) उच्चतर न्यायालयों और अधिकरणों द्वारा दिए गए निर्णयों का प्राधिकार – Authority of decisions given by higher courts and tribunals

“सामान्य कानूनी प्रणाली ” में आप देखेंगे कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय ( या उच्चतर न्यायालयों ) द्वारा दिए गए निर्णयों का प्राधिकार प्राप्त होता है और ये निर्णय शक्तिशाली स्थिति में होते हैं समान प्रकार के मामलों में निचली अदालतों और अधि करणों द्वारा इन निर्णयों का अनुपालन करना होता है क्योंकि कानून में उच्चतर न्यायालयों के निर्णयों को प्राधिकारात्मक शक्ति प्राप्त होती है । 

यदि निचले न्यायालय उच्चतर न्यायालयों के निर्णयों का अनुपालन नहीं करता है तो निचले न्यायालय के निर्णयों को चुनौती दी जा सकती है और इसे निरस्त भी किया जा सकता है । यह मत सोचिये कि यह विशेषता अन्य कानूनी प्रणालियों में भी विद्यमान हैं । अन्य कानूनी प्रणालियां उच्चतर न्यायालयों के निर्णय के प्राधिकार पर एसी विश्वसनियता नहीं दर्शाती है इस प्रकार , उन कानूनी प्रणालियों में उच्चतर न्यायालयों या न्यायाधिकार के उच्चतर / अपील न्यायालय के निर्णय निचले न्यायालयों पर प्राधिकारिक या बाध्यकारी नहीं हैं , जो सामान्य कानून परिवार के सदस्य नहीं है। उच्चतर न्यायालयों के निर्णयों के प्राधिकार को ‘ न्यायिक पूर्व निर्णय ‘ ( Judicial Precedent ) का तकनीकी नाम दिया गया है । 

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इस प्रकार , हम कह “सकते हैं कि उच्चतर न्यायालयों के निर्णय न्यायिक पूर्व निर्णय हैं और समान मामलों में निचले न्यायालयों को इनका अनुसरण करना चाहिए । उदाहरण के लिए भारत में , मुम्बई उच्च न्यायालय के निर्णय इस उच्च न्यायालय के न्यायाधिकार में आने वाले सभी निचले न्यायालयों के लिए ‘ न्यायिक पूर्व निर्णय ‘ माना जाएगा और वे इन निर्णयों से बाध्य होंगे । इस प्रकार भारत कानूनी प्रणाली के सामान्य कानून परिवार का एक सदस्य है । 

( 2 ) न्यायिक संस्थानों की संरचना – Structure of judicial institutions

सामान्य कानून परिवार की दूसरी समान विशेषता यह है कि न्यायालयों के न्यायाधीश अत्यधिक कुशल व्यक्ति होते हैं जिन्होंने विशेष रूप से कानून के विशेष्ट क्षेत्र का अध्ययन किया होता है और कानूनी प्रशासन में एड्वोकेट या न्यायाधीश के रूप प्रायोगिक अनुभव प्राप्त होता है । 

अन्य शब्दों में एक सामान्य व्यक्ति या एक वैज्ञानिक न्यायाधीश नहीं बन सकता है । बल्कि उसे कानूनी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति होना चाहिए अर्थात या तो वह एड्वोकेट हो या न्यायाधीश हो या कम से कम उसके पास विधि की डिग्री हो । निर्णय कानून की यह विशेषता न्यायिक संस्थानों को व्यावसायिक व्यक्तियों के पृथक समूह के रूप में स्थापित करती है ।

 यही एक कारण हैं कि उनके द्वारा दिए जाने वाले निर्णय तकनीकी हैं तथा कानून के प्रावधानों के अनुसार सटीक ब्यौरों पर आधारित हैं जिसके परिणामस्वरूप निर्णय की गुणवत्ता बेहतर होती है और इस कारण से ये निर्णय प्राधिकार स्थापित करते हैं जब ये अनुभवी न्यायाधीशों या एडवोकेटों द्वारा दिए जाते हैं । 

उदाहरण के रूप में , आप कह सकते हैं कि भारत में ट्रायल अदालतों या जिला न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रवेश परीक्षा के आधार पर की जाती हैं जहां न्यूनतम पात्रता विधि में डिग्री है और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का चयन एडवोकेट या न्यायाधीश के रूप में कम से कम 10 साल का अनुभव रखने वाले न्यायाधीशों में से किया जाता है । न्याय की पृष्ठभूमि से बाहर वाला व्यक्ति राज्य तथा केन्द्र सरकार का न्यायाधीश नहीं बन सकता है । इसलिए सामान्य कानून विधि में न्यायाध शों को सामान्य पृष्ठभूमि विविध नहीं होती हैं बल्कि अत्यंत सौमित होती है । 

( 3 ) न्यायालय प्रक्रियाओं की विरोधात्मक प्रणाली तथा न्यायाधीश की भूमिका – Adversarial system of court procedures and role of judge

सामान्य कानून प्रणाली की एक अन्य विशेषता यह है कि न्यायालय प्रक्रियाएं प्रतिवादी प्रकृति पर आधारित होती है जहां विवादित पक्ष एडवांकंटों की सहायता लेते हैं जो न्यायालय में प्रतिवादियों के रूप में कार्य करते हैं और प्रत्येक एडवोकेट मामले में जीत प्राप्त करने के उद्देश्य से दूसरे के विरुद्ध एड़ी – चोटी की लड़ाई लड़ता है । 

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न्यायालयों में न्यायाधीश एक तटस्थ अवलोकक के रूप में कार्य करते हैं और प्रत्येक पक्ष के एडवोकेटों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं । आपने फिल्मों में देखा होगा कि जब न्यायालय में शोर – शराबा होता है या एडवोकेट एक दूसरे पर अवांछित टिप्पणियां करने लगते हैं तो न्यायाधीश ‘ ऑर्डर – आर्डर ‘ बोलते हैं । 

सामान्य कानून व्यवस्था में यही न्यायाधीश की शक्ति नहीं है किन्तु न्यायाधीश प्रतिवादी एडवोकटों द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों से परे जाकर सक्रिय भूमिका अदा नहीं कर सकता है । वे एडवोकेटों के कौशल पर निर्भर करते हैं जो तटस्थ न्यायाधी के समक्ष यथासंभव सर्वोत्तम स्तर पर अपने मामले को प्रस्तुत करते हैं ।

न्यायाधीश के लिए इस तथ्य का कोई अर्थ नहीं होता है कि एडवोकेटों द्वारा मामले की सत्यता प्रस्तुत की गई हैं या नहीं । उसे केवल एडवोकेटों द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों से संतोष करना पड़ता है । वह विवादित पक्षों के दावों को निपटाने में सत्य को प्रस्तुत करने में किसी प्रकार की रूचि नहीं लेता।

( 4 ) सक्षम प्राधिकरणों द्वारा पारित अधिनियम , सविधि : Acts, statutes passed by competent authorities

सामान्य कानून प्रणाली की अंतिम अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि सक्षम प्राधिकरणों जैसे संसद तथा विधायिका आदि द्वारा पारित विधानों को प्राधिकारात्मक स्थान दिया जाता है जो कि न्यायाधीशों के लिए बाध्यकारी है , किन्तु जब कभी न्यायाधीश संसद द्वारा पारित अधिनियमों या संविधियों में किसी प्रकार का अंतर पाते हैं तो वे इन अधिनियमों में उपयुक्त रूप से संवर्धन या व्याख्या कर सकते हैं । 

अन्य शब्दों में , सामान्य कानून प्रणाली के न्यायाधीश या एडवोकेट यह सोचते हैं कि कानून या अधिनियम अत्यंत सारांश रूप में है और इन अधिनियमों में समाविष्ट नियम अत्यंत सामान्य प्रकृति के हैं । ये सामान्य तथा सारांश नियम सभी तथ्यों और परिस्थितियों में स्वयं प्रयोग किए जाने के लिए अक्षम हैं । प्रत्येक मामले के तथ्य विशिष्ट होते हैं और इनमें सामान्य तथा सारांश रूप के नियमों को लागू करना अत्यंत कठिन है तथा इनमें उपयुक्त संवर्धन और व्याख्या की आवश्यकता होती है । 

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यह संवर्धन तथा व्याख्या सामान्य तथा सार नियम के प्रावधानों के रूप में अत्यंत महत्वपूर्ण है । उदाहरण के लिए , हत्या के मामले के लिए भारतीय संसद द्वारा पारित अधिनियम द्वारा निर्धारित दंड आजीवन कारावास से मृत्यु दंड तक है । तथापि , यह निर्धारित नहीं किया गया है कि किन परिस्थितियों में आजीवन कारावास का दंड दिया जाएगा या किन परिस्थितियों में मृत्यु दंड दिया जाएगा । 

न्यायाधीशों ने इस अंतर को भरा है और कानून में अपने स्वयं का संवर्धन करके यह निर्धारित किया है कि “असाधारण से असाधारण मामलों में ” मृत्यु दंड देना उपयुक्त होगा जबकि अन्य मामलों में केवल आजीवन कारावास का दंड दिया जाएगा। 

क्या आप जानते है ? 

निर्णयज कानून की उत्पत्ति शाही शक्तियों से संबंधित है । इसे उन मामलों में एक प्रणाली के रूप में विकसित किया गया था जहां अंग्रेजी साम्राज्य की शांति को खतरा था या जहां अन्य महत्वपूर्ण मामलों में शाही शक्ति के हस्तक्षेप की आवश्यकता या औचित्य था ।

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